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हमारे तीर्थक्षेत्र
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दूसरे उच्छ्वासमें निर्वाण-भक्तिका अनुसरण करते हुए निर्वाण-क्षेत्र इस प्रकार बतलाये हैं
सम्मेदशिखरं शत्रुजयो गजपथस्तथा । तुंगीगिरिद्रोणगिरिहिमवत्सह्यपर्वतौ ॥ ५२ ॥ ऋष्यद्रिको बिन्ध्यगिरिपाना (?) पोदनपत्तने । विपुलाद्रिश्चूलगिरिः गिरिसद्धाद्रिकूटकम् ॥ ५३ ।। पृथुसारो मेटूकाख्यो गिरिः स्वर्णगिरिस्तथा । ऊर्जयन्तस्तारवरं कैलासो वृषदीपकम् ॥ ५४ ॥ वैभारपर्वतश्चम्पापुरी दण्डात्मकस्तथा ।
मोक्षतीर्थान्यमून्यत्र जिनानामात्मयोगिनाम् ।। ५५ ॥ ग्रन्थकर्त्ताने न तो कोई रचना-समय दिया है और न अपनी गुरुपरम्परादिका ही उल्लेख किया है । ग्रन्थकी प्रतिलिपि पं० शंकरलाल चौबेने वि० सं० १९८५ में की है, परन्तु जिस प्रतिसे की है वह कबकी लिखी हुई है इसका कोई निर्देश नहीं किया है । इसलिए ग्रंथकर्ताका समय अज्ञात ही रह जाता है । इसमें एक बड़े मजेकी बात देखी। दूसरे उच्छ्वासमें भगवान् राजा श्रेणिकको लक्ष्य कर उनके तीर्थसम्बन्धी प्रश्नका उत्तर देते-देते एक जगह कह बैठते हैं
इत्यादीनि च कैवल्य-ज्ञानकल्याणसंश्रयाः । अथोत्तरपुराणेऽन्यन्मदुक्ते पश्य विस्तरं ॥ ५० ॥ अंतः परं नराधीश विद्धि निर्वाण-संश्रयान् ।
यानधिष्ठाय जिनपाः मुक्तिलक्ष्मीस्वयंवृताः ॥ ५१ ॥ अर्थात् हे राजन् , इत्यादि ( ऊपर कहे हुए ) तीर्थ ज्ञानकल्याणके हैं । इनके सिवाय अन्य जो हैं उन्हें मेरे कहे हुए उत्तरपुराणमें विस्तारसे देख लेना ! भगवान् शायद यह भूल जाते हैं कि उत्तरपुराण मुझसे लगभग डेढ़ हजार वर्ष बाद रचा जानेवाला है ! ग्रंथकर्ता भी शायद इस धुनमें रचना-प्रसंग भूल बैठे हैं कि उन्हें श्रद्धालु पाठकोंपर यह प्रभाव डालना है कि मैं वही गुणभद्र हूँ जो उत्तरपुराणके कर्ता हैं । परन्तु ग्रन्थकी बिल्कुल तीसरे दर्जेकी रचना स्पष्ट बतला रही है कि भगवजिनसेनके शिष्य गुणभद्राचार्यकी रचनाके गुणोंकी उसमें गन्ध भी नहीं है । और यह 'अष्टादशभाषावारविलासिनी-भुजंग'के अनुकरणपर अपने आप पसन्द कर लिया गया और अपने नामके साथ जोड़ा हुआ टाइटल