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सोमदेवसूरिका नीतिवाक्यामृत
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- जिस तरह टीका - पुस्तक में अनेक सूत्र अधिक हैं और जिन्हें सोनीजी टीकाकर्ता की गढ़न्त समझते हैं, उसी प्रकार मुद्रित और मूलपुस्तक में भी कुछ सूत्र अधिक हैं ( जो टीका पुस्तक में नहीं हैं ), तब उन्हें किसकी गढ़न्त समझनी चाहिए ? विद्यावृद्धसमुद्देशके ५९ वे सूत्र के आगे निम्नलिखित पाठ छूटा हुआ है जो मुद्रित और मूलपुस्तक में मौजूद है:
“ सांख्यं योगो लोकायतं चान्वीक्षिकी । बौद्धातोः श्रुतेः प्रतिपक्षत्वात् ( नान्वीक्षिकीत्वं ), प्रकृतिपुरुषज्ञो हि राजा सत्त्वमवलम्बते । रजः फलं चाफलं च परिहरति, तमोभिर्नाभिभूयते । "
भला इन सूत्रोंको टीकाकारने क्यों छोड़ दिया ? इसमें कही हुई बातें तो उसके प्रतिकूल नहीं थीं ? और मुद्रित तथा मूलपुस्तक दोनों ही यदि जैनोंके लिए विशेष प्रामाणिक मानी जावें तो उनमें यह अधिक पाठ नहीं होना चाहिए था। क्योंकि इसमें वेदविरोधी होने के कारण जैन और बौद्धदर्शनको आन्वीक्षिकीसे बाहर कर दिया है और मुद्रित पुस्तक में तो मूलकर्ता के मंगलाचरण तकका अभाव है । वास्तविक बात यह है कि न इसमें टीकाकारका दोष है और न मुद्रित करानेवालेका । जिसे जैसी प्रति मिली है उसने उसीके अनुसार टीका लिखी है और पाठ छपाया है । एक प्रतिसे दूसरी और दूसरीसे तीसरी इस तरह प्रतियाँ होते होते लेखकोंके प्रमादसे अकसर पाठ छूट जाते हैं और टिप्पण आदि मूलमें शामिल हो जाते हैं ।
परिशिष्ट
अभी हाल ही परभणीके श्री शं० ना० जोशीको एक ताम्रपट प्राप्त हुआ है, जो भारत-इतिहास-संशोधन मंडल पूनेके त्रैमासिक पत्रे ( भाग १३ अंक ३ ) में प्रकाशित हुआ है । इससे कुछ नई बातें मालूम हुई हैं, जो यहाँ प्रकट की जाती हैं ।
ताम्रपत्रकी प्रतिलिपि भी इस लेख के साथ प्रकाशित की जाती है। इसक लिपि कनड़ी और भाषा संस्कृत है । पूरा लेख ५१ पंक्तियोंमें ताँबे के तीन पत्रोंप खुदा हुआ है जो एक मोटे तारमें नत्थी है । इसका सारांश यह है
पहले मंगलाचरण के पद्यमें कहा गया है कि संसार में उस जैनशासनकी जय हे १ यह पत्र मराठी में निकलता है ।