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जैनसाहित्य और इतिहास
इसका भावार्थ यह है कि लाट-वर्गट संघमें सिद्धान्तोंके पारगामी जयसेन मुनि हुए और उनके शिष्य गुणाकरसेन । इन गुणाकरसेनके शिष्य महासेन सूरि हुए जो राजा मुंजके द्वारा पूजित थे और सिन्धुराज या सिन्धुलके महत्तम ( महामात्य) पर्पटने जिनके चरणकमलोंकी पूजा की थी। उन्होंने इस प्रद्युम्नचरित काव्यकी रचना की और राजाके अनुचर विवेकवान् मघनने इसे लिखकर कोविदजनोंको दिया। ___ इसके प्रत्येक सर्गके अन्तमें महासेनको सिन्धुराजके महामहत्तम पर्पटका गुरु लिखा है जो इस बातको सूचित करता है कि पर्पट जैनधर्मानुयायी थे और उन्हींके कहनेसे इस काव्यकी रचना हुई थी। ___ इसमें यद्यपि ग्रन्थ-निर्माणका समय नहीं दिया है परन्तु वह एक तरहसे निश्चित-सा है । क्योंकि मुंज और सिन्धुलका काल शिलालेखों और दूसरे साधनोंसे निर्णीत हो चुका है। राजा मुंजके दो दानपत्र वि० सं० १०३१ और १०३६ के मिले हैं और १०५० और १०५४ के बीच किसी समय तैलिपदेवने उनका वध किया था। इन्हीं मुंजदेवके समयमें वि० सं० १०५० में अमितगतिने अपना सुभाषित-रत्न-सन्दोह समाप्त किया था । राजा सिन्धुल सुप्रसिद्ध राजा भोजके पिता थे । इनकी मृत्यु गुजरातनेरेश चामुण्डराय सोलंकीक साथकी लड़ाईमें वि० सं० १०६६ के कुछ पूर्व हुई थी। अर्थात् प्रद्युम्न-चरितकी रचना वि० सं० १०३१ से १०६६ के बीच किसी समय हुई होगी।
लाड़-बागड़ संघ माथुरसंघके ही समान काष्ठासंघकी एक शाखा थी। इस संघमें अनेक प्रभावशाली आचार्य हुए हैं। जिनकी चर्चा अन्य लेखोंमें की गई है । महासेनकी और कोई रचना अभीतक देखने सुननेमें नहीं आई |
प्रद्युम्नचरित चतुदर्शसर्गात्मक बहुत ही सुन्दर और सरस काव्य है । खेद है कि यह पठन-पाठनमें नहीं रहा, पुस्तक भंडारोंकी ही शोभा बढ़ाता रहा, इस लिए इसकी प्रसिद्धि नहीं हुई।