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हमारे तीर्थक्षेत्र
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शिल्पकला भी वहाँकी अपूर्व है जब कि सोनागिरिमें यह कुछ भी नहीं है। प्राचीनताका एक भी निदर्शन वहाँ प्राप्य नहीं । __ सोनागिरि गोपाचल ( ग्वालियरके) के भट्टारकका एक शाखा-पीठ है जो गोपाचल-पीठकी स्थापनाके बादका है। अतः इस शाखा-पीठकी स्थापनाके लगभग ही इस तीर्थकी नींव डाली गई होगी।
रेवा-तटके तीर्थ दहमुहरायस्स सुआ कोडी पंचद्धमुणिवरें सहिया । रेवाउहयम्मि तीरे णिव्वाण गया णमो तेसिं ॥१०॥ रेवाणइए तीरे पच्छिमभायम्मि सिद्धवरकूटे दो चक्की दह कप्पे आहुट्ठयकोडिणिव्वुदे वंदे ॥ ११ ॥ रेवातडम्मि तीरे संभवनाथस्स केवलुप्पत्ती ।
आहुट्ठयकोडीओ निव्वाण गया णमो तेसि ।। रेवा या नर्मदा नदी अमरकंटकसे लेकर खंभातकी खाड़ी तक १७७० मील लम्बी है। जब तक स्थानोंका ठीक ठीक निर्देश न मिले तब तक उसके तटके तीर्थ कहाँ कहाँ थे इसका निश्चय नहीं किया जा सकता । पहली गाथामें रेवाके दोनों किनारोंसे साढ़े पाँच कोटि मुनियोंका निर्वाण होना लिखा है जिसमें दशमुख राजा ( रावण ) के पुत्र प्रधान थे और दूसरी गाथामें रेवाके पश्चिम ( या दक्षिण ) भागके सिद्धवरकूटसे दो चक्रवर्ती और दश कन्दर्प या कामदेवोंका सिद्ध
१ किसी किसी प्रतिमें 'रेवाउहयतडग्गे' पाठ है। २ · रेवातडम्मि तीरे ' भी पाठ मिलता है।
३ श्रीपन्नालाल सरस्वती-भवनके गुटकेमें ' दक्खिणभायम्मि ' पाठ है ।
४ यह गाथा उक्त सरस्वतीभवनके गुटकेमें है। क्रियाकलापके सम्पादकने भी इसको टिप्पणमें दिया हैं।
५ स्वर्गीय रायबहादुर डा० हीरालालजीने सिद्ध किया था कि रावण जिस लंकाका राजा था वह सुदूर दक्षिणमें नहीं किन्तु अमरकंटक (नर्मदाके उद्गमस्थान ) के पास थी। इसके लिए उन्होंने अपने लेखोंमें अनेक प्रमाण दिये हैं । नर्मदाके तटसे रावणके पुत्रोंका मोक्ष जाना इस संभावनाका पोषक है ।