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जैनसाहित्य और इतिहास
मूलसंघ अर गण करो ( ह्यो ), बलात्कार समुझाय । श्रवणसेन अरु दूसरे, कनकसेन दुइ भाय ॥ बीजक अक्षर बाँचके, कियो सु निश्चय राय । और लिख्यो तो बहुत सौ सो नहिं परयो लखाय ॥ द्वादश सतक वरूतरा, पुन्यी जीवनसार । पारसनाथ-चरण तरैं तास विदी ( धी) विचार ॥
इसमें बतलाया गया है कि संवत् ३३५ पौष सुदी १५ का उक्त जीर्ण शिलालेख था और उसमें मूलसंघ बलात्कारगण के श्रवणसेन - कनकसेन, दो भाइयों का उल्लेख था । परन्तु जब तक उक्त मूललेख की प्राप्ति न हो तब तक उसके विषय में निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता और यह बात तो बिल्कुल ही समझमें नहीं आती कि जीर्णोद्धार करानेवाले ने इतनी महत्त्वपूर्ण वस्तुको सुरक्षित क्यों नहीं रक्खा और आखिर वह शिलालेख गया कहाँ ? नये लेखके साथ वह भी तो सुरक्षित रह सकता था ।
मूल लेखमें जो मूलसंघ और बलात्कारगणका उल्लेख बतलाया जाता है उससे उसके संवत् ३३५ के होने में पूरा सन्देह है । क्योंकि विक्रमकी चौथी शताब्दी में 1 बलात्कारगणका अस्तित्व ही नहीं था । इसके सिवाय चौथी शताब्दिकी लिपि इतनी दुपाठ्य होती है कि जीर्णोद्धार करनेवालोंके द्वारा वह पढ़ी ही नहीं जा सकती थी । हमारा अनुमान है कि मूल लेख में संवत् सं० १३३५ होगा जो अस्पष्टताके कारण या टूटा होने के कारण सं० ३३५ पढ़ लिया गया है । और वह लेख पूरा नहीं पढ़ा गया, इसे तो उक्त सारांश लिखनेवालेने स्वीकार भी किया है ।
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तेरहवीं चौदहवीं शताब्दि की मूर्तियाँ और मन्दिर सोनागिरिके आसपास के प्रान्तमें और भी अनेक मिले हैं । उक्त सारांश में ही पार्श्वनाथ के पद-तलके एक लेखका समय सं० १२१२ दिया है । श्रमणसेन और कनकसेन नाम प्रतिष्ठाकारक मुनियोंके मालूम होते हैं ।
यह जानने का कोई साधन नहीं है कि तेरहवीं शताब्दि में इस स्थानको श्रमणगिरि कहते थे या नहीं और जब तक ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिल जाता तब तक इस क्षेत्रका श्रमणगिरि होना और निर्वाण क्षेत्र होना संशयास्पद ही है ।
यह बात भी नोट करने लायक है कि सोनागिरिके आसपास देवगढ़, खजराहा, आदि स्थान बहुत प्राचीन हैं और देवगढ़ में तो गुप्तकाल तक के लेख मौजूद हैं ।