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जनसाहित्य और इतिहास
कुन्थु-गिरि वंसत्थलवरणयरे पच्छिम भायम्मि कुंथुगिरिसिहरे ।
कुलदेसभूसणमुणी णिव्वाण गया णमो तेसिं ॥ १७ ॥ अर्थात् वंशस्थलपुरके पास पश्चिमकी ओरके कुंथुगिरिके शिखरसे कुलभूषण और देशभूषण मुनिका निर्वाण हुआ।
निर्वाण-भक्तिमें इसका नाम नहीं आया है । 'वंसत्थलम्मि णयरे' और 'वंसस्थलवर-नियडे ' दो पाठ मिलते हैं परन्तु हमारी समझमें 'वंसत्थलउरणियडे ( वंशस्थलपुरनिकटे) पाठ होना चाहिए । श्रीरविषेणाचार्यके पद्मचरित ( पर्व ४० ) में वहाँके राजाको वंशस्थलपुरेश कहा है और उस स्थानको वंशस्थल' । वंशस्थलके पास बासोंका घना जंगल था जिसका नाम वंशधर थो । इसी वंशगिरिपर रामचन्द्रने जिनेन्द्रके सहस्रों चैत्य बनवाये । इससे मालूम होता है कि वंशस्थलपुरके समीप वंशगिरिपर चैत्य और चैत्यालय बने थे और वहींपर कुलभूषण-देशभूषणका मोक्ष हुआ था। ऐसी दशामें वंशगिरि ही कुन्थुगिरि होगा । यद्यपि पद्मपुराणमें उसे कुन्थुगिरि कहीं नहीं कहा है ।
पद्मचरितमें आगे चलकर चालीसवें पर्वमें लिखा है कि रामके द्वारा चैत्य
१--वंशस्थलपुरेशश्च महाचित्तः सुरप्रभः ।
सलक्ष्मणं सपत्नीकं पद्मनाभमपूजयत् ॥ २ ॥ २-नानाजनोपभोग्येषु देशेषु निहितेक्षणौ ।
धारौ क्रमेण सम्प्राप्तौ पुरं वंशस्थलद्युतिं ॥ ९ ॥ -अपश्यतां च तस्यान्ते वंशजालातिसंकटं । नगं वंशधराभिख्यं भित्वेयं भुवमुद्गतं ॥ ११ ॥ छायया तुङ्गशृङ्गाणां यः सन्ध्यामिव संततं । दधाति निर्झराणां च हसतीव च शीकरैः ॥ १२ ।। तत्र वंशगिरौ राज ( ज्ञा ? ) रामेण जगदिन्दुना निर्मापितानि चैत्यानि जिनशाना सहस्रशः ॥ २७ ॥