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हमारे तीर्थक्षेत्र
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संस्कृत निर्वाण-भक्तिमें 'प्रवरकुण्डलमेढ़के च' पाठ है और उसकी टीकामें श्रीप्रभाचन्द्राचार्यने खुलासा किया है 'प्रवरकुण्डले प्रवरमेढ़के च ।'
इस समय बराड़ के एलचपुरसे १२ मीलपर जो 'मुक्तागिरि' है, वही सिद्धक्षेत्र मेढगिरि बतलाया जाता है। परन्तु यह समझमें नहीं आता कि मेढगिरिका मुक्तागिरि नाम कैसे हो गया । न तो इन दोनों नामोंमें कोई उच्चारण-साम्य है और न अर्थ-साम्य ।
रा० ब० डाक्टर हीरालालके 'लिस्ट आफ इंस्क्रिप्शन्स इन सी० पी० एण्ड बरार' में मुक्तागिरिके लेखोंका उल्लेख करते हुए लिखा है कि वहाँ ४८ मन्दिर हैं जिनमें कोई ८५ मूर्तियाँ हैं । उनमेंसे अनेकोंपर संवत् हैं जिनसे वे सन् १४८८ (सं० १५४५ ) से लगाकर १८९३ (सं० १९५० ) तककी सिद्ध होती हैं ।
अमरावतीसे खरपी नामक गाँव तक पक्की सड़क गई है और वहाँसे लगभग तीन मील मुक्तागिरि है । इस खरपी गाँवमें कारंजाके भट्टारक पद्मनन्दिकी समाधि है जिनका समय वि० सं० १८७६ है । दि० जैन डिरेक्टरीके अनुसार कारंजाकी गद्दीपर, जो मान्यखेटकी गद्दीकी शाखा थी, ३६ भट्टारक हो चुके हैं। संवत् १५०० के लगभग यह गद्दी स्थापित हुई थी। मुक्तागिरिके प्राप्त लेखोंमें कोई भी वि० सं० १५४० के पहलेका नहीं है। सम्भव है, कारंजामें पट्ट स्थापित होनेके बाद ही इस क्षेत्रकी प्रसिद्धि की गई हो और अचलपुर (एलचपुर) के ईशानकोणमें इस स्थानकी स्थिति होनेसे ही निर्वाणकाण्डके अनुसार इसे मेदगिरि समझ लिया गया हो ।
अचलापुर या अचलपुर एलचपुर ही है, इसका सबसे पुष्ट प्रमाण यह है कि आचार्य हेमचन्द्रको अपने प्राकृत-व्याकरणमें इस वर्ण-व्यत्ययके लिए एक सूत्रकी ही रचना करना पड़ी है-'अचलपुरे चलोः ' अचलपुरे चकार-लकारयोर्व्यत्ययो भवति अलचपुरं ॥ २, ११८। हेमचन्द्रके समयमें जो अलचपुर कहा जाता था, वही अब एलचपुर कहा जाने लगा है। ___ डा० हीरालालके कथनानुसार तीवरखेड़में एक ताम्र-पट मिला है जो अचलपुरमें लिखा गया था। उसमें राष्ट्रकूट राजाओंका उल्लेख है और वह शक संवत् ५५३ ( वि० सं० ६८८ ) का है । इससे मालूम होता है कि बहुत प्राचीनकालसे एलचपुर अचलपुर नामसे विख्यात है।