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जैनसाहित्य और इतिहास
होना बतलाया है । इसमें भी स्थानका निर्देश नहीं है कि वह कहाँ था, सिर्फ स्थानका नाम भर दिया है।
किसी किसी प्रतिमें ( सबमें नहीं) रेवातटपर सम्भवनाथ तीर्थङ्करको केवल ज्ञानकी उत्पत्ति बतलाई है और उसके साथ भी साढ़े तीन कोटि मुनियोंका निर्वाण बतलाया है।
संस्कृत निर्वाण-भक्तिमें इन निर्वाण-स्थलोंका जिक्र नहीं है परन्तु चूँकि विन्ध्याचल रेवाके किनारे किनारे बहुत दूरतक चला गया है और उसमें 'विन्ध्ये' पद दिया है, इसलिए इनका अन्तर्भाव अवश्य हो सकता है। __ प्रारम्भिक गाथामें दशमुख राजाके पुत्रोंके नाम नहीं हैं कि वे कौन कौन थे । इंद्रजीत और कुम्भकर्णका निर्वाण तो आगेकी एक गाथामें 'चूलगिरि ' से बतलाया गया है।
दूसरी गाथामें निर्दिष्ट किया हुआ 'सिद्धवरकूट' इस समय बड़वाह ( इन्दौर) से ६ मीलकी दूरीपर माना-पूजा जा रहा है और गजपन्थके समान इसकी स्थापनाका इतिहास भी बहुत पुराना नहीं है । इसके स्रष्टा और विधाता भी एक भट्टारकजी थे जिनका नाम महेंद्रकीर्ति था और जो इन्दौरकी गद्दीके अधिकारी थे। उन्होंने ओंकारेश्वरके राजीको प्रसन्न करके उससे जमीन प्राप्त की और संवत् १९५० के लगभग इस क्षेत्रकी नींव डाली । उस समय अजमेरसे निकलनेवाले 'जैनप्रभाकर' पत्रमें, जिसके सम्पादक शायद छोगालालजी बिलाला थे, यह प्रकाशित हुआ था कि नर्मदाकी धाराके हट जानेसे ओंकारेश्वरके पास पुराने मन्दिरोंके कुछ अवशेष निकल आये हैं और यह अनुमान किया गया है कि यहीं निर्वाण-काण्डका सिद्धवरकूट था। सबसे पहले इन्दौरके सेठ भूरजी सूरजमल मोदीने माघ सुदी १५ सं० १९५१ में एक मन्दिरका जीर्णोद्धार कराके उसकी प्रतिष्ठा कराई । उसके बाद अन्य दो मंदिरोंका भी जीर्णोद्धार हुआ और धर्मशालायें आदि बनाई गई।
मंदिर अवश्य जीर्ण-शीर्ण थे परन्तु जिस स्थानपर थे वह सिद्धवरकूट ही है, इसका और कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है।
संवत् १७४६ में तीर्थयात्राको निकलनेवाले श्रीशीलविजयजीने अपनी १ यह राजा भिलाला जातिका है और इस वंशका अधिकार सन् ११३५ से अबतक ओंकारेश्वरपर चला आ रहा है ।