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जैनसाहित्य और इतिहास
और संवत् १५६५ की पं० हंससोम-रचित 'पूर्वदेशीय चैत्य-परिपाटी' में सोवनगिरि लिखा हुआ है।
श्रीयतिवृषभकी 'तिलोय-पण्णत्ति' में विपुल, वैभार आदिके साथ ऋषिशैलका उल्लेख है
सुरखेयरमणहरणे गुणणामे पंचसेलणयरम्म (णियडम्मि ?) विउलम्मि पव्वदवरे वीरजिणो अहकत्तारो ।। ६४ ॥ चउरस्सो पुव्वाए रिसिसेलो दाहिणाए वैभारो।
णइरिदिदिसाए विउओ दोण्णि तिकोणहिदायारा ॥ ६५ ॥ षटखंडागमकी वीरसेनस्वामिकृत धवलाटीकामें भी पंच-पहाड़ियोंका उल्लेख इस प्रकार किया गया है
पंचसेलपुरे रम्मे विउले पव्वदुत्तमे णाणादुमसमाइण्णे देव-दाणव-वंदिदे ।
महावीरेण अत्थो कहियो भवियलोयस्स ।। उक्त उल्लेखके पश्चात् उक्त ग्रन्थमें 'अत्रोपयोगिनौ श्लोको' कहकर निम्न लिखित दो प्राचीन श्लोक और भी उद्धृत किये हैं जो इन पहाड़ियोंके नामों (ऋषिगिरि, वैभार, विपुल, चन्द्र और पाण्डु) के सिवाय उनकी दिशाओं और आकारके सम्बन्धमें भी कुछ प्रकाश डालते हैं। ये ही श्लोक जयधवलामें भी आये हैं -
ऋषिगिरिरैन्द्राशायां चतुरस्रो याम्यदिशि च वैभारः। विपुलगिरिनैऋत्यामुभौ त्रिकोणौ स्थितौ तत्र ।। धनुराकारश्चंद्रो वारुण-वायव्य-सामदिक्षु ततः ।
वृत्ताकृतिरैशान्यां पाण्डुः सर्वे कुशाग्रवृत्ताः ।। श्रीजिनसेनकृत हरिवंशपुराणके तृतीय सर्गमें इन पहाड़ियोंका उल्लेख इस प्रकार हुआ है
ऋषिपूर्वो गिरिस्तत्र चतुरस्रः सनिर्झरः ।
दिग्गजेन्द्र इवेन्द्रस्य ककुभं भूषयत्यलम् ।। ५३ ॥ १ देखो श्रीविजयधर्मसूरि-सम्पादित 'प्राचीनतीर्थमाला-संग्रह' (प्रथम भाग) पृष्ठ ९ और १७।