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जैनसाहित्य और इतिहास
विरुद्ध जाता है । उसके अनुसार तो यहाँ राम ( बलभद्र) का मोक्ष-स्थान सिद्ध होता है जब कि यादव बलभद्र तो गजपंथसे निर्वाण प्राप्त हुए हैं ।
यद्यपि यह स्थान पाँच सौ वर्षसे भी अधिक पुराना है परन्तु ' तुङ्गीगिरि' नामसे और फिर 'माँगीतुङ्गी' के नामसे इसकी प्रसिद्धि कबसे हुई, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है शीलविजयके समयमें संवत् १७४६ में यह तुङ्गीगिरि नामसे प्रसिद्ध था। भट्टारक विश्वभूषणकी पूजाका नाम यदि मांगीतुङ्गी-पूजन हो, तो कहना होगा कि संवत् १७२२ के लगभग इसे माँगीतुङ्गी भी कहने लगे थे।
एक अद्भुत बात यह है कि पं० आशाधर अपने त्रिषष्टिस्मृति-शास्त्रमें राम, हनुमान आदिका मोक्ष-स्थान सम्मेदशिखर मानते हैं। इसी तरह रविषेणाचार्य अपने पद्मचरितमें भी हनुमानका मोक्ष या निर्वाण सम्मेदशिखरसे मानते हैं ।
उत्तरपुराणके अनुसार भी सुग्रीव, हनुमान आदि पाँच सौ राजाओंके साथ रामचन्द्रने सम्मेदशिखरसे मोक्ष प्राप्त किया है ।
बम्बईके 'ऐलक पन्नालाल सरस्वती-भवन ' में एक गुटका है उसमें द्विज विश्वनाथकी एक रचना है जिसमें १३ छप्पय छन्द हैं, पर उसका नाम कुछ नहीं लिखा । उसमें गिरनार, शत्रुञ्जय, मगसी-मंडन पार्श्वनाथ, अन्तरीक्ष, चम्पापुरी, पावापुरी, हस्तिनापुर, पैठन-मुनिसुव्रत, कुण्डलगिरि, पाली-शांतिजिन, गोपाचल (ग्वालियर) का वर्णन करके अन्तिम तेरहवें छप्पयमें इस प्रकार लिखा है
तुङ्गीगिरिके माहिं सकल असुरासुर जाणे, शास्त्र सकल सिद्धांत नाम बलभद्र बखाने । सिद्धा बहु मुणिराज जाइ सिववनिता पाम्या, रोग-सोग-संताप-कष्ट आपद सहु वाम्या ॥ बलभद्रदेवने पूजवा, सकल संघ वंदो बली।
द्विज विश्वनाथ इम उच्चरे, भजो भाव-मन-वच कली ॥ १३ ॥ १-साकेतमेतत्सिद्धार्थवने श्रित्वा बलस्तपः ।
शिवगुप्तजिनासिद्धः सम्मेदेऽणुमदादियुक् ।। ८० ॥ २-निर्दग्धमोहनिचयो जैनेन्द्रं प्राप्य पुष्कलं ज्ञाननिधिम् । निर्वाणगिरावसिधच्छ्रीशैलः श्रमणसत्तमः पुरुषरविः ॥ ४५-पर्व १३