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हमारे तीर्थक्षेत्र
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एलोरा, अहमदनगर और फिर नासिक, त्र्यम्बक, तुङ्गीगिरिका वर्णन करते हैं और जो तीर्थ दिगम्बर हैं उन्हें दिगम्बर ही लिखते हैं । वे नासिक और तुङ्गीगिरिका वर्णन करके भी गजपंथकी कोई चर्चा नहीं करते, तब यही अनुमान करना पड़ता है कि कमसे कम सं० १७४६ तक तो इस तीर्थका अस्तित्व यहाँ नहीं था।
तुङ्गीगिरि रामो सुग्गीव हणुउ गवयगवक्खो य णीलमहालो ।
णवणवदीकोडीओ तुंगीगिरिणिन्वुदे वंदे ॥ ८॥ अर्थात् राम, हनुमान, सुग्रीव, गवय, गवाक्ष, नील, महानील आदि निन्यानवे कोटि मुनि तुङ्गीगिरिसे मोक्ष गये । संस्कृत निर्वाण-भक्तिमें लिखा है 'तुंग्यां तु संगरहितो बलभद्रनामा'। इसमें तुङ्गीगिरिसे केवल बलभद्रके मुक्त होनेका उल्लेख किया है। __ वर्तमान क्षेत्र मांगीतुङ्गी गजपंथ ( नासिक ) से लगभग अस्सी मीलपर है। वहाँ पास ही पास दो पर्वत-शिखर हैं । उनमेंसे एकका नाम माँगी और दूसरेका तुङ्गी संभवतः इस कारण पड़ा है कि तुङ्गी अधिक ऊँचा ( तुङ्ग ) है और दूसरा माँगी उसके पीछे है । मराठीमें 'माँगे' का अर्थ पीछे होता है।
माँगी-शिखरकी गुफाओंमें कोई साढ़े तीन सौ प्रतिमायें तथा चरण हैं और तुङ्गीमें लगभग तीस । यहाँ एक विशेषता यह देखी गई कि अनेक प्रतिमायें साधुओंकी हैं जिनके साथ पीछी और कमण्डलु भी हैं और पास ही शिलाओंपर उन साधुओं के नाम भी लिखे हुए हैं । माँगीके एक शिलालेखमें वि० सं० १४४३ स्पष्ट पढ़ा जाता है । अन्य सब लेख इसके पीछेके हैं । पर माँगी या तुङ्गी नाम किसी भी पुराने लेखमें नहीं पढ़ा गया। ___ माँगीगिरि अपेक्षाकृत अधिक विस्तीर्ण है और उसमें मूर्तियाँ और शिलालेख भी बहुत है; परन्तु उसका नाम निर्वाण-काण्ड या अतिशयक्षेत्र काण्ड आदिमें कहीं नहीं मिला । राम-हनुमानकी तपस्याका सूचक कोई चिह्न या लेखादि भी उसपर नहीं पाया जाता । हाँ, दोनों पर्वतोंके मध्यमें एक स्थान बतलाया जाता है कि वहाँ बलभद्रने कृष्णका दाह-संस्कार किया था। पर यह कथन निर्वाणकाण्डसे