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हमारे तीर्थक्षेत्र
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विदुषा शिवजिद्रक्तनामधेयेन मोहनप्रेम्णा यात्राप्रसिद्धयर्थं चैकाह्निरचितं चिरं ॥ २२ ॥ जीयादिदं पूजनं च विश्वभूषणवद्धृवं ।
तस्यानुसारतो ज्ञेयं न च बुद्धिकृतं त्विदं ॥ २३॥ इत्याशीर्वादः इति नागारपट्टविराजमानश्रीभट्टारकक्षेमेन्द्रकीर्तिविरचितं गजपंथमंडलपूजनविधानं समाप्तम्। संवत् १९३९माघशुक्लपंचमी सोमवासरे कोपरग्रामप्रतिष्ठायां समाप्तमिदम्।"
अर्थात् हेमकीर्तिके पट्टके उत्तराधिकारी भट्टारक क्षेमेन्द्रकीर्तिकी आज्ञासे यह गजपंथ मंडल पूजन रचा गया । इसे पं० शिवजीलालने, मोहनके प्रेमसे, यात्राकी प्रसिद्धिके लिए-अर्थात् लोग इस तीर्थको जान जाय और यात्राको आने लगें-केवल एक दिनमें बनाया । यह पूजन विश्व-भूषणके समान चिरंजीवी हो । यह उसीके अनुसार है, अपनी बुद्धिकृत नहीं है। ___ इस तरह इसके कर्ता पं० शिवजीलाल हैं; परंतु चूँकि वे तो आज्ञाकारी मात्र थे, इसीलिए अन्तमें यह भी लिख गये कि यह भट्टारक क्षेमेन्द्रकीर्ति-विरचित है !
कोपरगाँव ( जिला अहमदनगर ) की प्रतिष्ठाके अवसरपर सं० १९३९ में भट्टारकजीने पण्डितजीको बुलवाया होगा और उसी समय उनसे यह काम करा लिया होगा। पं० शिवजीलाल जयपुरके भट्टारकानुयायी पण्डित थे । उनका स्वर्गवास हुए बहुत अधिक वर्ष नहीं हुए हैं । उन्होंने संस्कृत और भाषामें अनेक ग्रन्थोंकी रचना की थी। चर्चासंग्रह, तेरहपंथ-खण्डन, रत्नकरण्डकी वचनिका आदि उनके
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१-उक्त प्रशस्तिका ‘विश्वभूषणवत्' पद श्लिष्ट मालूम होता है । शायद इसमें सोनागिरिकी गद्दीके भट्टारक विश्वभूषणका संकेत हो जो जगद्भूषणके शिष्य थे और संवत् १७२२ के लगभग मौजूद थे। ग्रन्थ सूचियोंमें उनके 'मांगीतुङ्गी-पूजन-विधान'का नाम मिलता हैं। शायद यह मण्डल-विधान उसीके ढङ्गपर उसीके अनुसार बनाया गया हो। पूरा निश्चय तो माँगीतुङ्गी-पूजनके मिलनेपर ही हो सकता है।
जैनसिद्धान्तमास्कर वर्ष २, किरण १ के प्रतिमालेख-संग्रहमें एक 'सम्यग्दर्शनयंत्र'का उल्लेख है जो संवत् १७२२ का विश्वभूषणकी आम्नायके एक गृहस्थका दिया हुआ है और मैनपुरीके मन्दिरकी अजितनाथकी प्रतिमा सं० १६८८ में जगद्भूषण भट्टारकद्वारा प्रतिष्ठित है।