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जैनसाहित्य और इतिहास
मुख्य ग्रन्थ हैं, जिनमें तेरहपंथकी खूब खबर ली गई है । भगवती-आराधनाकी एक संस्कृत टीका भी उनकी उपलब्ध है'।
उक्त 'गजपंथ-मण्डल-विधान' में दस कटनी बनानेकी विधि है जिनके अनुसार आठ करोड़ मुनि दस हिस्सोंमें लाखों-हजारोंकी संख्या बाँट दिये गये हैं और इस तरह उक्त प्रत्येक विभक्त संख्याके पहले एक एक मुनिका नाम देकर सबको अर्घ्य दिया गया है। जैसेॐ ह्रीं बारहलक्ष तेतीस हजार मुनिसहित कनककीर्तिमुनि मोक्षपदं प्राप्तायाय॑म् । ओं ह्रीं द्वादशलक्ष गुणतीसहजार मुनिसहित धर्मकीर्तिमुनि मोक्षपदप्राप्तायाय॑म् । ___ परंतु प्रत्येक अय॑के साथ दिये हुए इन महासेन, हेमसेन, देवसेन, धर्मकीर्ति, कनककीर्ति, मेरुकीर्ति आदि नामोंसे साफ मालूम होता है कि ये सब कल्पित या मनगढन्त हैं । इस तरहके सेन-कीर्त्यन्त नाम पिछली भट्टारक-परम्परामें ही अधिक रहे हैं, ये प्राचीन नहीं हैं । इसके सिवाय इस मण्डल-विधानके अतिरिक्त और किसी भी प्राचीन ग्रन्थमें गजपन्थसे मुक्ति पानेवाले उक्त मुनियोंके नाम प्राप्त नहीं होते हैं । __ भट्टारक क्षेमेन्द्रकीर्तिके पहलेकी किसी भी पुस्तकमें वर्तमान गजपंथका उल्लेख अभी तक देखने में नहीं आया । इसके पहलेका गजपंथका कोई पूजन-पाठ भी उपलब्ध नहीं है।
वि० सं० १७४६ में श्रीशिवविजयके शिष्य शीलविजय नामके श्वेताम्बर साधुने दक्षिण देशकी तीर्थयात्रा की थी जिसका वर्णन उन्होंने अपनी 'तीर्थमाला' में किया है। दक्षिण देशके प्रायः सभी श्वेताम्बर-दिगम्बर तीर्थोकी यात्राको वे गये थे और उनका स्वयं आँखों देखा वर्णन उक्त पुस्तकमें है। श्रवण-बेल्गोल, मूडबिद्री आदिसे लौटते हुए वे कचनेर, दौलताबाद, देवगिरि,
१-अनन्तकीर्ति-ग्रन्थमालामें प्रकाशित 'भगवती-आराधना' की विस्तृत भूमिकामें इस टीकाकी प्रशस्ति दी गई है।
२ देखो श्रीविजयधर्मसूरिसम्पादित ' प्राचीन तीर्थमालासंग्रह ' प्रथम भाग पृष्ठ ११३.१२१ और आगेके पृष्ठोंमें हमारा — दक्षिणके तीर्थक्षेत्र' शीर्षक लेख ।