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हमारे तीर्थक्षेत्र
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वैभारो दक्षिणामाशां त्रिकोणाकृतिराश्रितः । दक्षिणापरदिग्मध्यं विपुलश्च तदाकृतिः ॥ ५४ ॥ सज्यचापाकृतिस्तिस्रो दिशो व्याप्य बलाहकः ।
शोभते पांडुको वृत्तः पूर्वोत्तरदिगन्तेरे ॥ ५५ ॥ इस उल्लेखमें चन्द्रके स्थानमें बलाहक लिखा है। व्यासकृत महाभारतमें भी इन पाँच पर्वतोंका उल्लेख है । परन्तु नामोंमें कुछ अन्तर पड़ गया है-वैहार ( वैभार ), बराह, वृषभ, ऋषिगिरि और चैत्यक ।
इनमेंका बराह और निर्माणभाक्त तथा हरिवंशका बलाहक ( बराहक ) एक ही हैं और ऋषिगिरि तो श्रवणगिरि है ही।
बौद्धोंके ' चूलदुक्खक्खन्धसुत्त' ' में राजगृहके समीपकी ऋषिगिरिकी कालशिलाका वर्णन आया है जहाँ बहुतसे निग्गंठ साधु तपस्याकी तीव्र वेदना सह रहे थे । अतएव बौद्धोंके अनुसार भी राजगृहके समीप ऋषिगिरि था जहाँ निर्ग्रन्थ मुनि तपस्या करते थे और उसीका अपर नाम श्रमणगिरि है। ___ इन सब उल्लेखोंको देखते हुए ऐसा मालूम होता है कि राजगृहके समीपके पाँच पर्वतों से ही एक श्रमणगिरि होना चाहिए, वर्तमान सोनागिरि नहीं । ___ वर्तमान सोनागिरि तीर्थ बहुत प्राचीन नहीं जान पड़ता। सिद्धक्षेत्रके रूपमें तो इसकी प्रसिद्धि बहुत आधुनिक मालूम होती है । इस समय वहाँ ७० ८० मन्दिरोंका समूह है जिनसे सारा पर्वत ढंक गया है । परन्तु दो-चारको छोड़कर शेष सब सौ-सवा सौ वर्षके भीतरके ही बने हुए हैं । वहाँ प्राचीन मूर्तियोंका प्रायः अभाव है और शिल्पकलाकी दृष्टिसे तो शायद एक भी मूर्ति ऐसी नहीं है जो कुछ महत्त्व रखती हो ।
वहाँका मुख्य मन्दिर श्रीचन्द्रप्रभ भगवानका है (अनंगकुमारका नहीं)। उसका जीर्णोद्धार वि० सं० १८८३ में मथुराके सेठ लखमीचन्दजी द्वारा हुआ था। उसमें एक शिलालेख भी लगा दिया गया है जो किसी जीर्ण मन्दिरके शिलालेखका सारांश बतलाया गया है । उसकी नकल हम यहाँ देते हैं
मन्दिरसह राजत भये, चंद्रनाथ जिनईस ।
पोशसुदी पूनम दिना, तीन-सतक-पैंतीस ॥ १ देखो त्रिपटकाचार्य श्रीराहुल सांकृत्यायनद्वारा अनुवादित — बुद्धचर्या ' पृष्ठ २३० ।