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जैन साहित्य और इतिहास
पहलेकी हैं और वे विक्रमकी तेरहवीं शताब्दी के - पर इन
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अन्तमें हुए हैं । अर्थात् कमसे कम छः सौ वर्ष पहले की तो ये हैं हीदोनों में कुछ अधिक समता नहीं है । दोनों ही जुदा-जुदा ढङ्गसे लिखी गई हैं । निर्वाण - काण्डमें तो तीर्थोंका उल्लेखमात्र करके और कहीं कहीं उनका स्थान- निर्देश करके, वहाँसे मुक्ति प्राप्त करनेवालोंको नमस्कार किया गया है और निर्वाण-भक्ति में पहले बीस पद्योंमें केवल भगवान् महावीरके पाँचों कल्याणों का वर्णन किया गया है और फिर आगे के बारह पद्यों में कैलास, चंपापुर, गिरनार, पावापुर, सम्मेदशिखर, शत्रुञ्जय आदिका उल्लेख करके दूसरे निर्वाण स्थानोंका नाममात्र दे दिया है । पहले के २० पद्योंको पढ़कर तो मालूम होता है कि वे एक स्वतन्त्र स्तोत्रके पद्य हैं जिनके अन्त में यह पद्य है
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" इत्येवं भगवति वर्द्धमानचन्द्रे यः स्तोत्रं पठति सुसन्धयोर्द्वयोर्हि । सोऽनन्तपरमसुखं नृदेवलोके भुक्त्वान्ते शिवपदमक्षयं प्रयाति । इन दो पुस्तकोंके सिवाय तीर्थक्षेत्रों की खोज में सहायता देनेवाली और कोई स्वतन्त्र रचना हमारे देखने में नहीं आई। हाँ, कथा-साहित्य से कुछ बातें संगृहीत की जा सकती हैं । श्वेताम्बर - साहित्य में अवश्य ही विविध तीर्थकल्प, तीर्थमाला, विविध-प्रबन्ध आदि अनेक साधन हैं ।
सर्वमान्य तीर्थ
दोनों भक्तियों के अष्टापद ( कैलास ) चम्पा, ऊर्जयन्त ( गिरनार ) और शत्रुञ्जय, ऐसे तीर्थ हैं जिनके विषय में कोई मतभेद नहीं है' और दिगम्बरश्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय इन्हें मानते हैं । अतएव इनके विषय में यह कहा जा सकता है कि ये सबसे प्राचीन हैं और शायद तबसे हैं जब जैनशासन अविभक्त था, उसमें भेद नहीं हुए थे ।
पावापुर
पावापुर भी दोनों सम्प्रदायोंको मान्य है और एक ही स्थानमें माना जाता है । फिर भी कुछ इतिहासज्ञ उक्त स्थानके विषय में सन्देह करते हैं । बौद्धधर्मके
१ श्रीयतिवृषभाचार्यकी ' तिलोयपण्णत्ति ' में क्षेत्र - मंगलका उदाहरण देते हुए पावानगरी, उज्जयंत और चम्पा तीन नामोंका उल्लेख करके आदि शब्द दे दिया है.
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एदस्स उदाहरणं पावाणगरुज्जयंत चम्पादी |