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सोमदेवसूरिका नीतिवाक्यामृत
शुक्रनीति जो इस समय मिलती है उसके विषयमें तो विद्वानोंकी यह राय है कि वह बहुत पीछेकी बनी हुई है-पाँच छः सौ बर्षसे पहलेकी तो वह किसी तरह हो ही नहीं सकती। शुक्रका प्राचीन ग्रन्थ इससे कोई पृथक् ही ग्रन्थ था'। कौटिलीय अर्थशास्त्रमें लिखा है कि शुक्रके मतसे दण्डनीति एक ही राजविद्या है, इसीमें सब विद्यायें गर्भित हैं; परन्तु वर्तमान शुक्रनीतिका कर्त्ता चारों विद्याओंको राजविद्या मानता है --' विद्याश्चतस्र एवेताः ' आदि ( अ० १ श्लो० ५१)। अतएव इस शुक्रनीतिको शुक्रकी मानना भ्रम है।
इन सब बातोपर विचार करनेसे हम टीकाकारपर यह दोष नहीं लगा सकते कि उसने स्वयं ही श्लोक गढ़कर मनु आदिके नामपर मढ़ दिये हैं। हम यह नहीं कहते कि वर्तमान मनुस्मृति उक्त टीकाकारके बादकी है, इस लिए उस समय यह उपलब्ध न होगी। क्योंकि टीकाकारसे भी पहले मूलक" श्रीसोमदेवसूरिने भी मनुके बीसों श्लोक उद्धृत किये हैं और वे वर्तमान मनुस्मृतिमें मिलते हैं; अतएव टीकाकारके समयमें भी यह मनुस्मृति अवश्य होगी; परन्तु इसकी जो प्रति उन्हें उपलब्ध होगी, उसमें टीकोद्धृत श्लोकोंका रहना असंभव नहीं माना जा सकता । यह भी संभव है कि किसी दूसरे ग्रन्थकर्त्ताने इन श्लोकोंको मनुके नामसे उद्धृत किया हो और उस ग्रन्थके आधारसे टीकाकारने भी उद्धृत कर लिया हो । जैसे कि अभी मोक्षमार्गप्रकाशके या द्विजवदनचपेटके आधारसे उनमें उद्धृत किये हुए मनुस्मृतिके श्लोकोंको कोई नया लेखक अपने ग्रन्थमें भी लिख दे ।
याज्ञवल्क्यस्मृतिके श्लोकके विषयमें भी यही बात कही जा सकती है। अब रही शुक्रनीति, सो उसकी प्राचीनतामें तो बहुत ही संदेह है । वह तो इस टीकाकारसे भी पीछेकी रचना जान पड़ती है । इसके सिवाय शुक्रके नामसे तो टीकाकारने दो चार नहीं १७० के लगभग श्लोक उद्धत किये हैं। तो क्या टीकाकारने वे सबके सब ही मूलकाको नीचा दिखानेकी गरजसे गढ़ लिये होंगे ? और मूलकतो इसमें अपनी कोई तौहीन ही नहीं समझते हैं । उन्होंने तो अपने यशस्तिलकमें न जाने कितने विद्वानोंके वाक्य और पद्य जगह जगह उद्धृत करके अपने विषयका प्रतिपादन किया है।
दूसरा आक्षेप यह है कि टीकाकारने स्वयं ही बहुतसे सूत्र ( वाक्य ) गढ़कर १ देखो गुजराती शुक्रनीतिकी भूमिका ।