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देवनन्दि और उनका जैनेन्द्र व्याकरण
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पूज्यपादैः अनन्तपर्यायात्मकस्य वस्तुनोऽन्यतमपर्यायाधिगमे कर्तव्ये जात्यहेत्वपेक्षो निरवद्यप्रयोगो नय इति ।" यह कोई न्याय या सिद्धान्तका ग्रन्थ जान पड़ता है।' _ 'जैनाभिषक' नामके एक और ग्रन्थका जिकर “जैनेन्द्र निजशब्दभागमतुलं” आदि श्लोकमें किया गया है । यह श्लोक ऊपर दिया जा चुका है । __कनड़ी पूज्यपादचरितमें पूज्यपादके बनाये हुए ‘अर्हत्प्रतिष्ठालक्षण' और 'शान्त्यष्टक' ये दो ग्रन्थ और भी बतलाये हैं ।
पूज्यपाद-चरित कनड़ी भाषाके इस चरितको चन्द्रय्य नामक कविने दुःषम कालके परिधावी संवत्सरकी आश्विन शुक्ल ५, शुक्रवार, तुलालग्नमें समाप्त किया है । यह कवि कर्नाटक देशके मलयनगरकी ' ब्राह्मणगली' का रहनेवाला था।
चरितका सारांश यह हैकर्नाटक देशके ' कोले' नामक ग्रामके माधवभट्ट नामक ब्राह्मण और श्रीदेवी ब्राह्मणीसे पूज्यपादका जन्म हुआ । ज्योतिपियोंने बालकको त्रिलोकपूज्य बतलाया, इस कारण उसका नाम पूज्यपाद रक्खा गया । माधवभट्टने अपनी स्त्रीके कहनेसे जैनधर्म स्वीकार कर लिया । भट्टजीके सालेका नाम पाणिनि था, उसे भी उन्होंने जैनी बननेको कहा, परन्तु प्रतिष्ठाके खयालसे वह जैनी न होकर मुडीगुंडग्राममें वैष्णव संन्यासी हो गया। पूज्यपादकी कमलिनी नामक छोटी बहिन हुई, वह गुणभट्टको ब्याही गई, और गुणभट्टको उससे नागार्जुन नामक पुत्र हुआ। ___ पूज्यपादने एक बगीचेमें एक साँपके मुँहमें फँसे हुए मेंडकको देखा। इससे
उन्हें वैराग्य हो गया और वे जैन साधु बन गये।। ___ पाणिनि अपना व्याकरण रच रहे थे । वह पूरा न हो पाया था कि उन्होंने अपना मरण-काल निकट आया जान कर पूज्यपादसे कहा कि इसे तुम पूरा कर दो। उन्होंने पूरा करना स्वीकार कर लिया ।
पाणिनि दुनिवश मरकर सर्प हुए । एक बार उसने पूज्यपादको देखकर फूत्कार किया, इसपर पूज्यपादने कहा, विश्वास रक्खो, मैं तुम्हारे व्याकरणको
१ इसके लिए प्रो० हीरालालजी जैन लिखित धवला ( पुस्तक १ ) की भूमिकाके पृष्ठ ६०-६१ देखिए।