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जैनसाहित्य और इतिहास
यक्षवाने अपनी टीका अमोघवृत्तिको ही कुछ फेर फार करके बनाई है, यह बात दोनों टीकाओंका मिलान करनेसे अच्छी तरह समझमें आ जाती है । कुछ उदाहरण लीजिएनामदुः १-१-१७
-मूल शाकटायनसूत्र यन्नामधेयं संव्यवहाराय हटान्नियुज्यते देवदत्तादि तदुसंशं वा भवति । देवदत्तीया दैवदत्ताः । षडनयानाहुः सिद्धसेनीया सैद्धसेनाः । -अमोघवृत्ति ___ यन्नामधेयं संव्यवहाराय हटान्नियुज्यते देवदत्तादि तदु संशं वा भवति । देव. दत्तीया दैवदत्तः ।
-चिन्तामणिटीका ___ कहीं कहींपर तो यक्षवीने अमोघवृत्ति ज्योकी त्यों नकलभर कर दी है । जैसे—ख्याते दृश्ये ४-३-२०७ । ___ भूतेऽनद्यतने ख्याते लोकविज्ञाते दृश्ये प्रयोक्तुः शक्यदर्शने वर्तमानाद्धातोर्ल
प्रत्ययो भवति । लिडपवादः । अरुणदेवः पाण्डयम् । अदहदमोघवर्षोरातीन् । ख्यात इति किम ? चकार कटं देवदत्तः । दृश्य इति किम् ? जघान कंसं किल वासुदेवः । अनद्यतने इति किम ? उदगादादित्यः। -अमोघवृत्तिः । उक्त सूत्रपर चिन्तामणिकी टीका भी इसी प्रकार है । अन्तर सिर्फ इतना ही है कि अमोघमें जहाँ ‘लङ् प्रत्ययो' लिखा है वहाँ चिन्तामणिमें केवल 'लङ्' लिखा है, 'प्रत्यय' छोड़ दिया है ।। ___ उपर्युक्त बातोंसे यह तो सिद्ध हो गया कि चिन्तामणि अमोघवृत्तिसे पीछे बनी है और उसीको संकोच करके बनाई गई है । अब यह देखना है कि अमोघवृत्तिका कर्त्ता कौन है ? चिन्तामणि टीकाके पूर्व ३-४-५-६-७ श्लोकोंका अर्थ अच्छी तरह लगानेसे इसका भी निश्चय हो जायगा।
३-जिन्होंने सकलज्ञानरूपी साम्राज्य पदको प्राप्त किया है और जो बड़े भारी साधुसमाजके अगुआ थे, वे शाकटाथनाचार्य जयवंत हों।
४-जिन अकेलेने बुद्धिरूप मन्दराचलसे शब्द-समुद्रका मंथन करके, उसमेंसे यशरूप लक्ष्मीके साथ साथ सम्पूर्ण व्याकरणोंका साररूप यह अमृत निकाला,
५-जिनका रचा हुआ शब्दानुशासन आईत् धर्मकी तरह स्वल्प-ग्रन्थ (प्रमाणमें थोड़ा), सुख-साध्य और सम्पूर्ण है,
६-जिन ( शाकमयन मुनि ) के शब्दानुशासनमें इष्टि, उपसंख्यान, वक्तव्य, न वक्तव्य आदिका झगड़ा नहीं है,