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नयचक्र और देवसेनसूरि
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दुसमीरणेण पोयं पेरियसंतं जहा ति ( चि ) रं न । सिरिदेवसेन मुणिणा तह णयचकं पुणो रइयं ||
इसका अभिप्राय यह है कि दुःषमकालरूपी आँधीसे पोतके ( जहाजक ) समान जो नयचक्र चिरकालसे नष्ट हो गया था उसे देवसेन मुनिने फिर से रचा । इससे मालूम होता है कि देवसेनके नयचक्र से पहले भी कोई नयचक्र था जो नष्ट हो गया था और बहुत सम्भव है कि देवसेनने यह उसीका संक्षिप्त उद्धार किया हो ।
उपलब्ध ग्रन्थों में नयचक्र नामके तीन ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं- १ आलाप पद्धति, २ लघु नयचक्र, और ३ बृहत् नयचक्र । इनमें से पहला ग्रन्थ आलापपद्धति संस्कृतमें है और शेष दो प्राकृतमें ।
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१ आलापपद्धति – इसके कर्त्ता भी देवसेन ही हैं । भाण्डारकर रिसर्च इन्स्टिटयूट पूनामें इस ग्रन्थकी एक प्रति है, उसके अन्त में प्रति-लेखकने लिखा है - " इति सुखबोधार्थमालापपद्धतिः श्रीदेवसेनविरचिता समाप्ता । इति श्रीनयचक्र सम्पूर्णम् । उक्त पुस्तकालयकी सूची में भी यह नयचक्र नामसे ही दर्ज है । बासोदा के भंडारकी सूची में भी -- जो बम्बईके दिगम्बर जैन मन्दिर के सरस्वती भण्डार में है— इसे नयचक्र संस्कृत गद्य' के नामसे दर्ज किया है । पं० शिवजीलालकृत दर्शनसार - वचनिका में देवसेन के संस्कृत नयचक्रका जो उल्लेख है वह भी जान पड़ता है, इसी आलाप पद्धतिको लक्ष्य करके किया गया है । यद्यपि आलाप-पद्धतिमें नयचक्रका ही गद्यरूप सारांश है और वह नयचक्रके ऊपर ही लिखी गई है, इसलिए कुछ लोगों द्वारा दिया गया उसका यह ' नयचक्र' नाम एक सीमातक क्षम्य भी हो सकता है; परन्तु वास्तव में इसका नाम ' आलाप-पद्धति ही है, नयचक्र नहीं |
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आलापपद्धतिके प्रारम्भमें ही लिखा है – “ आलापपद्धतिर्वचनरचनानुक्रमेण नयचक्रस्योपरि उच्यते । इससे मालूम होता है कि आलापपद्धति प्राकृत नयचक्रपर संस्कृत में प्रश्नोत्तररूपसे लिखी गई है । आलाप अर्थात् बोलचालकी
१. कारंजाकी प्रतिमें भी यह गाथा है ।
२ सन् १८८४-८६ की रिपोर्टके ५१९ वें नम्बरका ग्रन्थ ।