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जैनसाहित्य और इतिहास
लेकर अपने तककी गुरुपरम्परा दी है; परन्तु समय और स्थान नहीं दिया है। शोलापुरसे प्रकाशित हो चुका है।
सामयिक पाठ-यह एक सौ बीस पद्योंका छोटा-सा प्रकरण है । इसके अन्तमें लिखा है--- " वृत्तवंशशतेनेति कुर्वता तत्त्वभावनां । सद्योऽमितगतेरिष्टा निवृत्तिः क्रियते करे ।
इति द्वितीय भावना समाप्ता ।" इससे मालूम होता है कि इस ग्रन्थका नाम सामायिक पाठ नहीं है, या तो तत्त्वभावना होगा या कुछ और । ' इति द्वितीय भावना से यह भी अनुमान होता है कि सम्पूर्ण ग्रन्थ बड़ा है और उसकी यह दूसरी भावना या दूसरा अध्याय है । माणिकचन्द्र-ग्रन्थमालाके सिद्धान्तसारादिसंग्रहमें यह एक ही कापी परसे प्रकाशित हुआ है जिसे ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी किसी पुस्तक-भंडारसे नकल करके लाये थे। __ ७ भावना-द्वात्रिंशतिका-३२ पद्योंका यह भी एक प्रकरण है, जो सामायिक पाठ नामसे कई स्थानोंसे प्रकाशित हो चुका है। पाठ करने योग्य सुन्दर रचना है। संभव है, यह भी पूर्वोक्त तत्त्वभावना या ऐसे ही किसी नामवाले ग्रन्थका एक अध्याय हो ।
८ योगसार प्राभृत-इस ग्रन्थके कर्ताका नाम भी अमितगति है, परन्तु इसके कर्ता शायद इन अमितगतिके दादा गुरुके गुरु अमितगति हो । क्योंकि ये अमितगति अपने प्रत्येक ग्रन्थके प्रायः प्रत्येक प्रकरण या अध्यायके अन्तमें अपना अमितगति नाम श्लिष्ट रूपसे देते हैं । उनकी यह विशेषता योगसारमें नहीं है । इस ग्रन्थके अन्तमें कोई गुरु-परम्परा भी नहीं दी है। अपने नामके साथ दिया हुआ 'वीतराग' विशेषण भी इनके प्रथम अमित
१-दृष्ट्वा सर्व गगननगरस्वप्नमायोपमानं निःसंगात्मामितगतिरिदं प्राभृतं योगसारं ब्रह्मप्राप्त्या परममकृतं स्वेषु चात्मप्रतिष्ठम्
नित्यानन्दं गलितकलिलं सूक्ष्ममत्यक्षलक्ष्यम् ॥ योगसारामिदमेकमानसः प्राभृतं पठति योऽभिमानतः ॥ स्वस्वरूपमुपलक्ष्य सोऽवितः (चिरः) सम्प्रयाति भवदोषवंचितम् ।। इति श्रीअमितगतिवीतरागविरचितायामध्यात्मतरंगिण्यां नवमोधिकारः ।