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जैन साहित्य और इतिहास
गुरु-शिष्य परम्परा
अमितगतिकी गुरुपरम्परा इस प्रकार है-— सिद्धान्तपारगामी वीरसेन, उनके शिष्य देवसेन, देवसेनके शिष्य अमितगति ( प्रथम ), उनके नेमिषेण, नेमिषेणके माधवसेन और उनके शिष्य अमितगति' ।
और अमितगतिकी शिष्य-परम्पराका पता अमरकीर्तिके छेक्कम्मोवएस ( षट्कर्मोपदेश ) से लगता है, जो इस प्रकार है – अमितगति, शान्तिषेण, अमरसेन, श्रीषेण, चन्द्रकीर्ति और चद्रकीर्तिके शिष्य अमरकीर्ति । अमरकीर्तिने अपना यह अपभ्रंश भाषाका ग्रन्थ भादों सुदी १४ वि० सं० १२४७ को समाप्त किया था ।
ग्रन्थोंका परिचय
अमितगतिसूरिके अबतक नीचे लिखे ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं
१ सुभाषितरत्नसन्दोह - यह एक स्वोपज्ञ सुभाषित ग्रन्थ है । इसमें सांसारिक विषयनिराकरण, मायाहंकार - निराकरण, इन्द्रियनिग्रहोपदेश, स्त्रीगुणदोषविचार, देवानरूपण आदि बत्तीस प्रकरण हैं और प्रत्येक में बीस-बीस पच्चीस पच्चीस पद्य हैं । सुगम संस्कृत में प्रत्येक विषयका बड़ी सुन्दरतासे निरूपण किया गया है। सभी पद्य कण्ठ करने लायक हैं । ग्रन्थके उपान्तमें २१७ श्लोकों में श्रावक-धर्मनिरूपण है, जिसे एक छोटा-सा श्रावकाचार समझना चाहिए । पूरे ग्रन्थमें ९२२ पद्य हैं । निर्णयसागर की काव्यमाला में यह बहुत समय पहले प्रकाशित हो चुका है । कलकत्तेकी सिद्धान्त प्रचारिणी सभा इसे हिन्दी अनुवादसहित भी प्रकाशित कर चुकी है । यह विक्रम संवत् १०५० पौष सुदी पंचमीको समाप्त हुआ था, जब कि राजा मुंज पृथिवीका पालन करते थे ।
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२ धर्मपरीक्षा - यह संस्कृत साहित्य में अपने ढंगका एक निराला ही काव्यग्रन्थ है । इसमें हिन्दू पुराणोंकी ऊटपटांग कथाओं और मान्यताओंको बड़े ही मनोरंजक रूपमें मजाक करते हुए अविश्वसनीय ठहराया है । सारा ग्रन्थ एक सुन्दर कथाके रूपमें श्लोकबद्ध है । श्लोकोंकी संख्या १९४५ है । यह ग्रन्थ
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१ आगे दी हुई प्रशस्तियाँ देखिए
२ इस ग्रन्थका विस्तृत परिचय प्रो० हीरालालजी जैनने जैन - सिद्धान्तभास्कर भाग २ अंक ३ में दिया है ।