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आचार्य अमितगति
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इसी तरह अमितगतिने अपना सुभाषितरत्नसंदोह वि० सं० १०५० में समाप्त किया है और उन्होंने अपनी गुरुपरम्पराके पाँच पूर्वजोंका उल्लेख किया है जिनमें सबसे पहले वीरसेन हैं । यदि प्रत्येक पूर्वजका समय २० वर्ष भी माना जाय, तो सौ वर्ष हो जाता है, अर्थात् वीरसेनका समय वि० स० ९५० के लगभग होगा और उक्त वीरसेन ही माथुरसंघके स्थापक नहीं थे, रामसेन थे' और यदि वे वीरसेनसे दो-तीन पीढ़ी ही पहले हुए हों, तो उनका समय भी दर्शनसारमें बतलाये हुए माथुरसंघकी स्थापनाके समयसे अर्थात् वि० सं० ९५३ से पहले चला जाता है। __ लाड़-बागड़ संघ भी जो काष्ठासंघकी एक शाखा है, काफी प्राचीन मालूम होता है । दुबकुण्डके जैनमन्दिरके प्रशस्ति-लेखके रचयिता, विजयकीर्ति मुनि, लाड़-बागड़ संघके हैं । वे शान्तिषेणके शिष्य थे । इन शान्तिषेणके पहलेके देवसेन, कुलभूषण और दुर्लभसेन नामक गुरुओंका भी उसमें उल्लेख है । शान्तिघेण दुर्लभसेनके शिष्य थे। अर्थात् विजयकीर्तिसे कमसे कम सौ वर्ष पहले देवसेन गुरु होंगे । उक्त लेख भाद्र सुदी ३ वि० सं० ११४५ का लिखा हुआ है । अर्थात् वि० सं० १०४५ से भी पहले तक इस संघकी परम्परा जा पहँचती है। ___ इसी तरह प्रद्युम्नचरित काव्यके कर्ता महासेन परमार-राजा मुंजके समयमें वि० सं० १०५० के लगभग हुए हैं। ये भी लाड़-बागड़ संघके थे। इन्होंने अपने गुरु गुणाकरसेन और दादा गुरु जयसेनका उल्लेख किया है, जो वि० स०१००० के लगभग हुए होंगे या उससे कुछ पहले।
१ दर्शनसार गाथा ४० ।
२ ग्वालियरसे ७९ मील नैऋतमें कुन नदीकी बाईं ओर ‘दुबकुंड ' नामक स्थानमें यह जैनमन्दिर है और एपिग्राफिआ इण्डिका जिल्द २, पृष्ठ ३७-४० में उक्त लेख छपा है ।
३ प्रद्युम्नचरित माणिकचन्दजैन-ग्रन्थमालामें प्रकाशित हो चुका है। जिस प्रतिके आधारसे वह छपा था, उसमें प्रशस्ति नहीं थी। परन्तु कारंजाके भंडारमें जो प्रति है, उसमें प्रशस्ति है, जो आगे ' महासेनाचार्य ' शीर्षक लेखमें उद्धत की गई है ।