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जैनसाहित्य और इतिहास
आचार्य हरिभद्रने अपने 'अनेकांत-जयपताका' नामक ग्रंथमें वादिमुख्य मल्लवादिकृत — सन्मति-टीका' के कई अवतरण दिये हैं और श्रद्धेय मुनि जिनविजयजीने अनेकानेक प्रमाणोंसे हरिभद्रसूरिका समय वि० स० ७५७ से ८२७ तक सिद्ध किया है । अतः आचार्य मल्लेवादि विक्रमकी आठवीं शताब्दिके पहलेके विद्वान् हैं, यह निश्चय है और विद्यानन्दस्वामी विक्रमकी नवीं शताब्दिमें हुए हैं, यह भी प्रायः निश्चित-सा है।
उक्त मल्लवादिका भी एक 'नयचक्र' नामका संस्कृत ग्रंथ है जिसका पूरा नाम 'द्वादशार नयचक्र' है । जिसतरह चक्रमें आरे होते हैं, उसी तरह इसमें बारह आरे अर्थात् अध्याय हैं । मूल ग्रन्थ तो उपलब्ध नहीं है पर उसकी सिंह क्षमाश्रमणकृत टीका मिलती है । आचार्य यशोविजयने नष्टभ्रष्ट और खंडित प्रतियोंपरसे नयचक्रका उद्धार किया था परन्तु अब उसकी भी कोई शुद्ध प्रति उपलब्ध नहीं है । संभव है कि विद्यानन्दस्वामीने इसी नयचक्रको लक्ष्य करके पूर्वोक्त सूचना की हो । जिस तरह हरिवंशपुराण और आदिपुराणके कर्त्ता दिगम्बर जैनाचार्योंने सिद्धसेनसूरिकी प्रशंसा की है--जो कि श्वेताम्बराचार्य समझे जाते हैंउसी तरह विद्यानन्दस्वामीने भी श्वेताम्बराचार्य मल्लवादिके ग्रन्थको पढ़नेकी सिफारिश की हो, तो कोई आश्चर्यकी बात नहीं है । जिस तरह सिद्धसेनसूरि तार्किक थे उसी तरह मल्लवादि भी थे और जब दिगम्बर और श्वेताम्बर संप्रदायके तार्किक सिद्धान्तोंमें विशेष महत्त्वका मत-भेद नहीं है, तब नयसंबंधी एक श्वेताम्बर तर्क-ग्रन्थका उल्लेख एक दिगम्बराचार्यद्वारा किया जाना कुछ असम्भव नहीं मालूम होता । अनेक श्वेताम्बर ग्रन्थकर्ताओंने भी इसी तरह दिगम्बर ग्रन्थकारोंकी प्रशंसा की है और उनके ग्रन्थों के हवाले दिये हैं ।
यह भी सम्भव है कि देवसेनके अतिरिक्त अन्य किसी दिगम्बराचार्यका भी कोई नयचक्र हो और विद्यानन्दस्वामीने उसका उल्लेख किया हो । माइल्ल धवलके बृहत् नयचक्रके अन्तकी गाथा ( जो केवल बम्बईवाली प्रतिमें है, मोरेनाकी प्रतिमें नहीं है ) यदि ठीक हो तो उससे इस बातकी पुष्टि होती है । वह गाथा इस प्रकार है
१ देखो, जैनसाहित्यसंशोधकका पहला अंक। २ श्वेताम्बर-परम्पराके अनुसार वीर संवत ८८४ में मल्लवादिने बौद्धोंको पराजित किया था ।