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शाकटायन और उनका शब्दानुशासन
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गणधातुपाठयोगेण धातून लिंगानुशासने लिङ्गगतं । औणादिकानुणादौ शेषं निःशेषमत्र वृत्तौ विद्यात् ॥ ११ ॥ बालाबलाजनोप्यस्या वृत्तरेभ्यासवृत्तितः ।
समस्तं वाङ्मयं वेत्तिवर्षेणैकेन निश्चयात् ॥ १२ ॥
तत्र सूत्रस्यादावयं मङ्गलश्लोकः । नमः श्रीवर्द्धमानायेत्यादि । शब्दार्थसम्बन्धार्था वाचकवाच्ययोग्यता अथवा आगमप्रयोजनोपायोपेयभावाः ते येन सर्वसत्त्वहितेन तत्त्वतः प्रज्ञापिताः तस्मै श्रीमते महावीराय साक्षात्कृत्सकलद्रव्याय नमः करोमीत्यव्याहारः । विघ्नप्रशमनार्थम देवतानमस्कारं परममङ्गलमारभ्य भगवानाचार्यः शाकटायनः शब्दानुशासनं शास्त्रमिदं प्रारभते ।
धर्मार्थ काममोक्षेषु तत्त्वार्थावगतिर्यतः । शब्दार्थज्ञानपूर्वति वेद्यं व्याकरणं बुधैः ||
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अ इ उ ण् ऋक । ए औ ङ् ।... हल इति वर्ण समाम्नायः क्रमानुबाधोपादानः प्रत्याहारयन् शास्त्रस्य लाघवार्थ: । सामान्यग्रहणाद्दीर्घतानुनासिकानां ग्रहणम् । - चिन्तामणि टीका चिन्तामणि कर्त्ता यक्षवर्माने उपरिलिखित सातवें श्लोक में कहा है कि " यह उसकी छोटी वृत्ति है जिसे मैंने उसकी ( शाकटायनकी ) बहुत बड़ी वृत्तिसे संक्षिप्त करके बनाया है । वे यह नहीं कहते कि यह मेरी स्वतन्त्र रचना है I अब यह देखना चाहिए कि वह अति महती या बहुत बड़ी वृत्ति कौन-सी है जिसको संक्षिप्त करके यह लिखी गई है । विचार करके देखा जाय तो मालूम होगा कि वह वृत्ति और कोई नहीं, अमोघवृत्ति ही है । क्यों कि एक तो उपलब्ध वृत्तियोंमें वही सबसे बड़ी है । दूसरे ऊपर लिखी हुई दोनों प्रशस्तियों के कुछ भाग समान हैं, जो यह बतलाते हैं कि एक वृत्ति दूसरीको देखकर या उसीको संक्षेप करके बनाई गई है । ' इति वर्णसमाम्नाय : ' आदि पाठ दोनों के मिलते जुलते हुए हैं । अन्तर केवल यह है कि जहाँ अमोघवृत्ति में सामान्याश्रयणात्' लिखा गया है वहाँ चिन्तामणि में ' सामान्यग्रहणात् ' है । तीसरे यक्षवमने जिस मंगलश्लोककी नमः श्रीवर्द्धमानायेत्यादि ' प्रतीक दी है वह अमोघवृत्तिमें ही मिलती है । मूलका या अन्य किसी वृत्तिका यह श्लोक नहीं
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। इस लोकके उत्तरार्द्धकी व्याख्या भी अमोघवृत्तिसे थोड़ा बहुत इधर उधर करके नकल कर दी गई है । इन सब बातों से यह निश्चय हो जाता है कि चिन्ता - माण टीका अमोघवृत्तिसे पीछे बनी है और वह अमोघवृत्तिका ही संक्षेप है ।