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शाकटायन और उनका शब्दानुशासन
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तब उसने उनपर चढ़ाई कर दी और उन्हें तहस नहस कर डाला। इस युद्ध में ध्रुव घायल होकर मारा गया । ___ अमोघवर्ष श० सं० ७३६ ( वि० सं० ७७१ ) में सिंहासनपर बैठे थे और यह दानपत्र श० सं० ७८९ (वि० सं० ८२४ ) का है । अतः सिद्ध है कि अमोघवृत्ति ७३६ और ७८९ के बीच किसी समय लिखी गई है और यही पाल्यकीर्ति या शाकटायनका समय है ।
महाराजा अमोधवर्ष ( प्रथम ) जैन विद्वानोंके बड़े भारी आश्रयदाता थे । भगवाजिनसेनको वे अपना गुरु मानते थे और अन्तमें तो उन्होंने शायद जैनधर्मके विवेकसे राज्यका त्याग भी कर दिया था। अतएव यदि वैयाकरण शाकटायनने उनके जैन धर्म और साहित्यके प्रेमी होनेके नाते अपनी वृत्तिका नाम अमोघवृत्ति रक्खा हो तो कोई आश्चर्य नहीं और फिर 'अदहदमोघवर्षा रातोन् ' उदाहरणसे तो अमोघवृत्तिके कर्ताकी समकालीनता स्पष्ट ही हो रही है ।
शाकटायनके पूर्ववर्ती आचार्य शाकटायनने अपनी पूर्व गुरु-परम्पराका कोई उल्लेख नहीं किया है, यहाँ तक कि अपने गुरुका नाम भी नहीं दिया है। प्रकरण और सूत्र-ग्रन्थमें तो खैर इसके लिए स्थान नहीं था, पर अमोघवृत्तिमें गुंजाइश थी और संभव है उसमें प्रशस्ति रही भी हो; परन्तु जो प्रतियाँ उपलब्ध हैं उनमें शायद प्रति-लिपिकारोंकी कृपासे वह नहीं रही है।
अमोघवर्ष ( प्रथम ) के पिता प्रभूतवर्ष या गोविन्दराज तृतीयका जो दान-पत्र कदंब (मैसूर ) में मिला है वह शक सं० ७७५ का अर्थात् अमोघवर्षके राजा होनेसे एक वर्ष पहलेका है । उसमें अर्ककीर्ति मुनिको मान्यपुर ग्रामके शिलाग्राम जिनेन्द्र-भवनके लिए एक गाँव दान करनेका उल्लेख है । अर्ककीर्ति यापनीय-नन्दिसंघ-घुनागवृक्षमूलगणके थे । अर्ककीर्तिके गुरुका नाम विजयकीर्ति और प्रगुरुका श्रीकीर्ति था । बहुत संभव है कि पाल्यकीर्ति ( शाकटायन ) इसी परम्पराके हों, और आश्चर्य नहीं जो अर्ककीर्तिके ही शिष्य या उनके सधर्मा हों।
१ विवेकात्यक्तराजेन राज्ञेयं रत्नमालिका । रचितामोघवर्षेण सुधियां सदलंकृतिः ॥–प्रश्नोत्तररत्नमाला