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पण्डितवर आशाधर
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___ इन बीस ग्रन्थों से मूलाराधना-टीका, इष्टोपदेश-टीका, सहस्रनाम मूल ( टीका नहीं), जिनयज्ञकल्प मूल (टीका नहीं ), त्रिषष्टिस्मृति, धर्मामृतके सागार अनगार भागोंकी भव्य-कुमुदचंद्रिका टीका और नित्यमहोद्योत मूल ( टीका नहीं) ये ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं और क्रियाकलाप उपलब्ध है । भरताभ्युदय और प्रमेयरत्नाकरके नाम सोनागिरके भट्टारकजीके भण्डारकी सूचीमें अबसे लगभग २८ वर्ष पहले मैंने देखे थे । संभव है वे वहाँके भण्डारमें हों । हमारे खयालमें आशाधरजीका साहित्य नष्ट नहीं हुआ है । प्रयत्न करनेसे वह मिल सकता है ।
रचनाका समय पहले लिखा जा चुका है कि पण्डित आशाधरजीकी एक ही प्रशस्ति है जो कुछ पद्योंकी न्यूनाधिकताके साथ उनके तीन मुख्य ग्रन्थों में मिलती है।
जिनयज्ञकल्प वि० सं० १२८५ में, सामारधर्मामृत-टीका १२९६ में और अनगारधर्मामृत टीका सं० १३०० में समाप्त हुई है। जिनयज्ञकल्पकी प्रशस्तिमें जिन दस ग्रन्थोंके नाम दिये हैं, वे १२८५ के पहलेके बने हुए होने चाहिए । उसके बाद सागारधर्मामृत-टीकाकी समाप्ति तक अर्थात् १२९६ तक काव्यालंकार-टीका, सटीक सहस्रनाम, सटीक जिनयज्ञकल्प, सटीक त्रिषष्टिस्मृति और नित्यमहोद्योत ये पाँच ग्रन्थ बने । अन्तमें १३०० तक राजीमती-विप्रलम्भ, अध्यात्मरहस्य, रत्नत्रयविधान और अनगारधर्म-टीकाकी रचना हुई। मोटे तौरपर यही ग्रन्थ-रचनाका समय है।
त्रिषष्टिस्मृतिकी प्रशस्तिसे मालूम होता है कि वह १३९२ में बना है । इष्टोपदेश टीकामें समय नहीं दिया ।
सहयोगी विद्वान् १ पण्डित महावीर-ये वादिराज पदवीसे विभूषित पं० धरसेनके शिष्य शिष्य थे । पं० आशाधरजीने धारामें आकर इनसे जैनेन्द्र व्याकरण और जैन न्यायशास्त्र पढ़ा था। • २ उदयसेन मुनि-जान पड़ता है, ये कोई वयोज्येष्ठ प्रतिष्ठित मुनि थे और कवियोंके सुहृद् थे । इन्होंने पं० आशाधरजीको 'कलि कालिदास' कहकर अभिनन्दित किया था।