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जैनसाहित्य और इतिहास
३-४ वादीन्द्र विशालकीर्ति और मदनकीर्ति यतिपति-विशालकीर्तिको पं० आशाधरने न्यायशास्त्र पढ़ाया था और इस परम अस्त्रका अभ्यास करके उन्होंने विपक्षियोंको जीता था। मदनकीर्ति विशालकीर्तिके शिष्य थे। पण्डित मदनकीर्तिके विषयमें राजशेखरसूरिके 'चतुर्विशति-प्रबन्ध' में जो वि० सं० १४०५ में निर्मित हुआ है और जिसमें प्रायः ऐतिहासिक कथायें ही दी हैं 'मदनकीर्ति-प्रबन्ध' नामका एक प्रबन्ध है। उसका सारांश यह है कि मदनकीर्ति. वादीन्द्र विशालकीर्तिके शिष्य थे। वे बड़े भारी विद्वान् थे । चारों दिशाओंके वादियोंको जीतकर उन्होंने ' महाप्रामाणिक-चूडामणि ' पदवी प्राप्तकी थी। एक बार गुरुके निषेध करनेपर भी वे दक्षिणापथको प्रयाण करके कर्नाटकमें पहुँचे । वहाँ विद्वत्प्रिय विजयपुरनरेश कुन्तिभोज उनके पाण्डित्यपर मोहित हो गये और उन्होंने उनसे अपने पूर्वजोंके चरित्रपर एक ग्रन्थ निर्माण करनेको कहा । कुन्तिभोजकी कन्या मदन-मञ्जरी सुलेखिका थी। मदनकीर्ति पद्य-रचना करते जाते थे और मञ्जरी एक पर्देकी आड़ में बैठकर उसे लिखती जाती थी।
कुछ समयमें दोनोंके बीच प्रेमका आविर्भाव हुआ और वे एक दूसरेको चाहने लगे । जब राजाको इसका पता लगा तो उसने मदनकीर्तिको वध करनेकी आज्ञा दे दी । परन्तु जब उनके लिए कन्या भी अपनी सहेलियोंके साथ मरनेके लिए तैयार हो गई, तो राजा लाचार हो गया और उसने दोनोंको विवाह-सूत्रमें बाँध दिया। मदनकीर्ति अन्त तक गृहस्थ ही रहे और विशालकीर्तिद्वारा बार बार पत्रोंसे प्रबुद्ध किये जाने पर भी टससे मस नहीं हुए। __ श्रीसोमदेवमुनिकृत शब्दार्णवचन्द्रिकाकी प्रशस्तिसे मालूम होता है कि उन्होंने कोल्हापुर प्रान्तान्तर्गत अर्जुरिका नामक ग्राममें शक संवत् ११२७ (वि० सं० १.६२ ) में वादीभवज्रांकुश विशालकीर्ति पण्डितदेवके वैयावृत्यसे अपने इस ग्रन्थकी रचना की और उस समय वहाँ शिलाहारवंशीय वीर भोजदेवका राज्य थी।
१ “ स्वस्ति श्रीकोल्हापुरदेशान्तवा रिकामहास्थानयुधिष्ठिरावतारमहामण्डलेश्वरगंडरादित्यदेवनिर्मापितत्रिभुवनतिलकजिनालये श्रीपरमपरमेष्ठिश्रीनेमिनाथश्रीपादपद्माराधनबलेन वादीभवज्रांकुशश्रीविशालकीर्तिपंडितदेववैयावृत्यतः श्रीमच्छिलाहारकुलकमलमार्तण्डतेज:पुञ्जराजाधिराजपरमेश्वरपरमभट्टारकपश्चिमचक्रवति-श्रीवीरभोजदेवविजयराज्ये शकवकसहस्रकशत. सप्तविंशति ११२७ तम क्रोधनसंवत्सरे स्वस्ति समस्तानवद्य-विद्याचक्रवर्तिश्रीपूज्यपादानुरक्तचेतसा श्रीमत्सोमदेवमुनीश्वरेण विरचितेयं शब्दार्णवचन्द्रिका नामवृत्तिरिति । इति श्रीपूज्यपादकृतजैनेन्द्रमहाव्याकरणं सम्पूर्णम् ।