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पण्डितवर आशाधर
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व्यक्त किये गये हैं, उनसे तो इस कल्पनाको बहुत पुष्टि मिलती है और फिर यह अर्हद्दास नाम भी विशेषण जैसा ही मालूम होता है । सम्भव है उनका वास्तविक नाम कुछ और ही रहा हो । यह नाम एक तरहकी भावुकता और विनयशीलता ही प्रकट करता है ।
इस सम्बन्धमें एक बात और भी नोट करने लायक है कि अद्दासजी के ग्रन्थोंका प्रचार प्रायः कर्णाटक प्रांत में ही रहा है जहाँ कि वे चतुर्विंशतिप्रबन्धकी कथाके अनुसार सुमार्गसे पतित होकर रहने लगे थे और जैसा कि शब्दार्णवचद्रिकाकी प्रशस्तिसे मालूम होता है उनके गुरु विशालकीर्ति भी वहाँ पहुँच गये थे । खूब संभव है कि उन्हींके प्रयत्न सत्पथपर फिर लौट आये हों और अद्दास बनकर वहीं रहने लगे हों ।
इतना सब लिख चुकने के बाद हम पं० आशाधरजीके अन्तिम ग्रन्थ अनगारधर्मामृत टीकाकी अन्त्य प्रशस्ति उद्धृत कर देते हैं जिसके आधारपर पूर्वोक्त सब बातें कही गई हैं । यह उनकी मुख्य प्रशस्ति है, अन्य ग्रन्थोंकी प्रशस्तियाँ इसी में कुछ पद्य कम ज्यादा करके बनी हैं । उन न्यूनाधिक पद्योंको भी हमने टिप्पणी में दे दिया है ।
मुख्य प्रशस्ति
श्रीमानस्ति सपदलक्षविषयः शाकम्भरीभूषणस्तत्र श्रीरतिधाम मण्डलैकरं नामास्ति दुर्ग महत् ।
१-२-सपादलक्षको भाषामें सबालख कहते हैं । नागौर (जोधपुर) के आसपासका प्रदेश सबालख नामसे प्रसिद्ध है । वहाँ पहले चौहान राजाओंका राज्य था । फिर साँभर और अजमेर के चौहान राजाओं का सारा देश सपादलक्ष कहलाने लगा, और उसके सम्बन्धसे चौहान राजाओंको ' सपादलक्षीय नृपति' विशेषण दिया जाने लगा । साँभरको ही शाकंभरी कहते हैं । साँभर झील जो नमकका आकर है, उस समय सबालख देशकी 1 सिंगार थी, अर्थात् साँभरका राज्य भी तब सबालखमें शामिल था । मण्डलकर दुर्ग अर्थात मांडलगढ़का किला इस समय मेवाड़ राज्य में है, परन्तु उस समय मेवाड़का सारा पूर्वीय भाग चौहानोंके अधीन था। चौहान राजाओंके बहुतसे शिलालेख वहाँ मिले हैं । पृथ्वीराजके समय तक वहाँ के अधिकारी चौहान रहे हैं । अजमेर जब मुसलमानों के कब्जे में आया तब मांडलगढ़ भी उनके हाथ चला गया ।