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जैनसाहित्य और इतिहास
मालव-नरेश अर्जुनवर्मदेवका भाद्रपद सुदी १५ बुधवार सं० १२७२ का एक दानपत्र मिला है, जिसके अन्तमें लिखा है-" रचितमिदं महासान्धि० राजा सलखणसंमतेन राजगुरुणा मदनेने ।” अर्थात् यह दानपत्र महासान्धिविग्रहिक मंत्री राजा सलखणकी सम्मतिसे राजगुरु मदनने रचा। इन्हीं अर्जुनवर्माके राज्यमें पं० आशाधर नालछेमें जाकर रहे थे और ये राजगुरु मदन भी वही हैं जिन्हें पं० आशाधरजीने काव्य-शास्त्रकी शिक्षा दी थी। इससे अनुमान होता है कि उक्त राजा सलखण ही संभव है कि आशाधरजीके पिता सलक्षण हो ।
जिस समय यह परिवार धारामें आया था उस समय विन्ध्यवर्माके सन्धिविग्रहिक मंत्री ( परराष्ट्र-सचिव ) बिल्हण कवीश थे। उनके बाद कोई आश्चर्य नहीं जो अपनी योग्यताके कारण सल्लक्षणने भी वह पद प्राप्त कर लिया हो और सम्मानसूचक राजाकी उपाधि भी उन्हें मिली हो। पण्डित आशाधरजीने 'अध्यात्म-रहस्य' नामका ग्रन्थ अपने पिताकी आज्ञासे निर्माण किया था। यह ग्रन्थ वि० सं० १२९६ के बाद किसी समय बना होगा । क्योंकि इसका उल्लेख सं० १३०० में बनी हुई अनगारधर्मामृतटीकाकी प्रशस्तिमें तो है, परन्तु १२९३ में बने हुए जिनयज्ञकल्पमें नहीं है । यदि यह सही है तो मानना होगा कि आशाधरजीके पिता १२९६ के बाद भी कुछ समय तक जीवित रहे और उस समय वे बहुत ही वृद्ध थे । संभव है कि उस समय उन्होंने राज-कार्य भी छोड़ दिया हो।
पण्डित आशाधरजीने अपनी प्रशस्तिमें अपने पुत्र छाहड़को एक विशेषण दिया है, "रांजतार्जुनभूपतिम् ।” अर्थात् जिसने राजा अर्जुनवर्मको प्रसन्न किया । इससे हम अनुमान करते हैं कि राजा सलखणके समान उनके पोते छाहड़को भी अर्जुनवर्मदेवने कोई राज्य-पद दिया होगा। अक्सर राजकर्मचारियोंके वंशजोंको एकके बाद एक राज-कार्य मिलते रहते हैं । पं० आशाधरजी भी कोई राज्य-पद पा सकते थे परन्तु उन्होंने उसकी अपेक्षा जिनधर्मोदयके कार्यमें लग जाना ज्यादा कल्याणकारी समझा।
उनके पिता और पुत्रके इस सम्मानसे स्पष्ट होता है कि एक सुसंस्कृत और
१ अमेरिकन ओरियंटल सोसाइटीका जर्नल वा० ७ और प्राचीन लेखमाला भाग १ पृ० ६-७॥