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पण्डितवर आशाधर
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उनके प्रायः सभी ग्रन्थोंकी रचना नालछाके उक्त नेमि-चैत्यालयमें ही हुई है
और वहीं वे अध्ययन अध्यापनका कार्य करते रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं, जे उन्हें धाराके 'शारदा-सदन' के अनुकरण पर ही जैनधर्मके उदयकी कामनारे 'श्रावक-संकुल' नालछेके उक्त चैत्यालयको अपना विद्यालय बनानेकी भावन उत्पन्न हुई हो । जैनधर्मके उद्धारकी भावना उनमें प्रबल थी।
ऐसा मालूम होता है कि गृहस्थ रहकर भी कमसे कम 'जिनसहस्रनाम' के रचनाके समय वे संसार-देहभोगोंसे उदासीन हो गये थे और उनका मोहावेश शिथिल हो गया था । हो सकता है कि उन्होंने कोई गृहस्थकी उच्च प्रतिम धारण कर ली हो, परन्तु मुनि-वेश तो उन्होंने धारण नहीं किया था, यह निश्चय है । हमारी समझमें मुनि होकर वे इतना उपकार शायद ही कर सकते जितन कि गृहस्थ रहकर ही कर गये हैं। ___ अपने समयके तपोधन या मुनि नामधारी लोगोंके प्रति उनको कोई श्रद्ध नहीं थी, बल्कि एक तरहकी वितृष्णा थी और उन्हें वे जिनशासनको मलिन करनेवाला समझते थे जिसको कि उन्होंने अपने धर्मामृतमें एक पुरातन श्लोकके उद्धृत करके व्यक्त किया है।
पण्डितजी मूलमें मांडलगढ़ ( मेवाड़) के रहनेवाले थे। शहाबुद्दीन गोरीवे आक्रमणोंसे त्रस्त होकर चरित्रकी रक्षाके लिए वे मालवाकी राजधानी धारामें बहुत-से लोगोंके साथ आकर बस गये थे।
वंश-परिचय वे व्या रवाल या बघेरवाल जातिके थे जो राजपूतानेकी एक प्रसिद्ध वैश्यजाति है । उनके पिताका नाम सल्लक्षण, माताका श्रीरत्नी, पत्नीका सरस्वती और पुत्रक छाहड़ था। इन चारके सिवाय उनके परिवारमें और कौन कौन थे, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता।
१ प्रभो भवाङ्गभोगेषु निर्विष्णो दुःखभीरुकः, एष विज्ञापयामि त्वां शरण्यं करुणार्णवम् ।।
ग गोगदावेठाशैथिल्यात्किञ्चिदन्मुखः । —जिनसहस्रनाम २-पण्डितैभ्रष्टचारित्रैः बठरैश्च तपोधनैः । शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् ॥