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जैनसाहित्य और इतिहास
चर्चा की है और फिर उनके बीच किस तरह एकता स्थापित हो सकती है, सो बतलाया है।
पण्डित आशाधर गृहस्थ थे, मुनि नहीं। पिछले जीवनमें वे संसारसे उपरत अवश्य हो गये थे, परन्तु उसे छोड़ा नहीं था, फिर भी पीछेके ग्रन्थकर्ताओंने उन्हें सूरि और आचार्य-कल्प कहकर स्मरण किया है और तत्कालीन भट्टारकों और मुनियोंने तो उनके निकट विद्याध्ययन करनेमें भी कोई संकोच नहीं किया है। इतना ही नहीं, मुनि उदयसेनने उन्हें 'नय-विश्वचक्षु' तथा ' कलि-कालिदास',
और मदनकीर्ति यतिपतिने 'प्रज्ञापुंज' कहकर अभिनन्दित किया था । वादीन्द्र विशालकीर्तिको उन्होंने न्यायशास्त्र और भट्टारकदेव विनयचन्द्रको धर्मशास्त्र पढ़ाया था। इन सब बातोंसे स्पष्ट होता है कि वे अपने समयके अद्वितीय विद्वान् थे।
धारानगरी और नालछा उन्होंने ग्रन्थ-प्रशस्तियोंमें अपना परिचय देते हुए लिखा है कि 'जिनधर्मोदयार्थ यो नलकच्छपुरेऽवसत्' अर्थात् जो जैनधर्मके उदयके लिए धारानगरीको छोड़ कर नलकच्छपुर (नालछा) में आकर रहने लगा। उस समय धारानगरी विद्याका केंद्र बनी हुई थी। वहाँ भोजदेव, विन्ध्यवर्मा, अर्जुनवर्मा जैसे विद्वान् और विद्वानोंका सम्मान करनेवाले राजा एकके बाद एक हो रहे थे। महाकवि मदनकी 'पारिजात-मञ्जरी' के अनुसार उस समय विशाल धारानगरीमें चौरासी चौराहे थे और वहाँ नाना दिशाओंसे आये हुए विविध विद्याओंके पण्डितों और कलाकोविदोंकी भीड़ लगी रहती थी । वहाँ 'शारदा-सदन' नामका एक दूर दूर तक ख्याति पाया हुआ विद्यापीठ था । स्वयं आशाधरजीने भी धारामें ही व्याकरण
और न्यायशास्त्रका अध्ययन किया था । ऐसी धाराको भी जिसपर हरएक विद्वानको मोह होना चाहिए पण्डित आशाधरने जैनधर्मके ज्ञानको लुप्त होते देखकर उसके उदयके लिए छोड़ दिया और अपना सारा जीवन इसी कार्यमें लगा दिया ।
वे लगभग पैंतीस वर्षके लम्बे समयतक नालछामें ही रहे और वहाँके नेमि. चैत्यालयमें एकनिष्ठतासे जैनसाहित्यकी सेवा और ज्ञानकी उपासना करते रहे ।
१ चतुरशीतिचतुष्पथसुरसदनप्रधाने ... सकल दिगन्तरोपगतानेकत्रैविद्यसहृदयकलाकोविदरसिकसुकविसंकुले ...
-पारिजातमञ्जरी