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जैनसाहित्य और इतिहास
मूल ( असली) जैनेन्द्र व्याकरणके संक्षिप्त शरीरको तानित या विस्तृत करके बनाया गया है।
शब्दार्णवचन्द्रिकाके प्रारंभका मंगलाचरण भी इस विषयमें ध्यान देने योग्य है', जिसमें ग्रन्थकर्ताने भगवान् महावीरके विशेषणरूपमें क्रमसे पूज्यपादका, गुणनन्दिका और अपना ( सोमामर या सोमदेवका) उल्लेख किया है और इससे वे निस्सन्देह यही ध्वनित करते हैं कि मुख्य व्याकरणके कर्ता पूज्यपाद हैं, उसको विस्तृत करनेवाले गुणनन्दि हैं और फिर उसकी टीका करनेवाले सोमदेव ( स्वयं ) हैं । यदि यह चन्द्रिका टीका पूज्यपादके व्याकरणकी ही होती, तो मंगलाचरणमें गुणनन्दिका नाम लानेकी कोई आवश्यकता नहीं थी। गुणनन्दि उनकी गुरु-परम्परामें भी नहीं हैं, जो उनका उल्लेख करना आवश्यक होता । अतः यह सिद्ध है कि चन्द्रिका और प्रक्रिया दोनोंके ही कर्ता यह समझते थे कि हमारी टीकायें असली जैनेन्द्रपर नहीं किन्तु उसके 'गुणनन्दि-तानितवपुः " शब्दार्णवपर बनी हैं।
२-शब्दार्णव-चन्द्रिका और जैनेन्द्र-प्रक्रिया इन दोनों ही टीकाओंमें 'एकशेष' प्रकरण है; परन्तु अभयनन्दिकृत 'महावृत्ति' वाले सूत्रपाठमें एकशेषको अनावश्यक बतलाया है-'" स्वाभाविकत्वादभिधानस्यैकशेषानारम्भः।” (१-१-९९)
और इसी लिए देवनन्दि या पूज्यपादका व्याकरण ' अनेकशेष' कहलाता है। चन्द्रिका टीकाके कर्ता स्वयं ही “ आदावुपज्ञोपक्रमम् ” ( १.४-११४ ; सूत्रकी टीका उदाहरण देते हैं " देवोपज्ञमनेकशेषव्याकरणम् ।” यह उदाहरण अभयनन्दिकृत महावृत्तिमें भी दिया गया है। इससे सिद्ध है कि शब्दार्णव-चन्द्रिकाके कर्ता भी उसी व्याकरणको देवोपज्ञ या देवनन्दिकृत मानते हैं, जो अनेकशेष है, अर्थात् जिसमें 'एकशेष' प्रकरण नहीं है और ऐसा व्याकरण वही है जिसकी टीका अभयनन्दिने की है। ____३-आचार्य विद्यानन्दि अपने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पृष्ठ २६५ में 'नैगमसंग्रह-' आदि सूत्रकी व्याख्या करते हुए लिखते हैं, “ नयश्च नयौ च नयाश्च नया १-श्रीपूज्यपादममलं गुणनन्दिदेवं सोमामरव्रतिपपूजितपादयुग्मम् ।
सिद्धं समुन्नतपदं वृषभं जिनेन्द्रं सच्छन्दलक्षणमहं विनमामि वीरम् ।। २ इस प्रक्रियाका भी नाम 'शब्दार्णव-प्रक्रिया ' होगा, जैनेन्द्र-प्रकिया नहीं।