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जैनसाहित्य और इतिहास
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गुरु देवेन्द्रके गुरु गुणनन्दि एक ही होंगे और जैसा कि हम पहले लिख चुके हैं बहुत संभव है कि ये ही शब्दार्णवके कर्त्ता हो । ___ गुणनन्दि नामके एक और आचार्य शक संवत् १०३७ (वि० सं० ११७२) में हुए हैं जो मेघचन्द्र विद्यके गुरु थे।
शब्दार्णवकी इस समय दो टीकायें उपलब्ध हैं और दोनों ही सनातनजैनग्रन्थमालामें छप चुकी हैं-- १ शब्दार्णवचन्द्रिका, और २ शब्दार्णव-प्रकिया ।
१ शब्दार्णव-चन्द्रिका । इसकी एक बहुत ही प्राचीन और अतिशय जीर्ण प्रति भाण्डारकर रिसर्च इन्टिटयूटमें है । यह ताड़पत्रपर नागरी लिपिमें है । इसके आदि-अन्तके पत्र प्रायः नष्ट हो गये हैं। छपी हुई प्रतिमें जो गद्य-प्रशस्ति है, वह इसमें नहीं है और अन्तमें एक श्लोक है जो पूरा नहीं पढ़ा जाता
इन्द्रश्चंद्रःशकटतनयः पाणिनिः पूज्यपादो यत्प्रोवाचापिशलिरमरः काशकृत्स्न......शब्दपारायणस्येति । इसके कर्ता श्रीसोमदेव मुनि हैं । ये शिलाहार वंशके राजा भोजदेव (द्वितीय) के समयमें हुए हैं और अर्जुरिका नामक ग्रामके त्रिभुवनतिलक नामक जैनमन्दिरमें—जो कि महामण्डलेश्वर गंडरादित्यदेवका बनवाया हुआ था- उन्होंने इसे शक संवत् ११२७ ( वि० सं० १२६२ ) में बनाया है। यह ग्राम इस समय आजरें नामसे प्रसिद्ध है और कोल्हापुर राज्यमें है। वादीभवज्रांकुश श्रीविशोलकीर्ति पण्डितदेवके वैयावृत्यसे इस ग्रन्थकी रचना हुई है ।
१ नं० २५ सन् १८८०-८८ की रिपोर्ट ।
२ ये विशालकीर्ति वे ही मालूम होते हैं जिनका उल्लेख पं० आशाधरने अपने अनगारधर्मामृतकी प्रशस्तिकी टीकामें ‘वादीन्द्र विशालकीर्ति ' के नामसे किया है और जिनको उन्होंने न्यायशास्त्रमें पारंगत किया था। पं० आशाधर वि० सं० १२४९ के लगभग धारामें आये थे और वि० सं० १३०० तक उनके अस्तित्वका पता लगता है । अत: वे सोमदेवका वैयावृत्य करनेवाले विशालकीर्ति हो सकते हैं। पं० आशाधरके पाससे पढ़कर ही वे दक्षिणकी ओर चले आये होंगे।
३ स्वस्ति श्रीकोल्हापुरदेशांतर्वार्जुरिकामहास्थानयुधिष्ठिरावतारमहामण्डलेश्वरगंडरादित्यदेवनिर्मापितत्रिभुवनतिलकजिनालये श्रीमत्परमपरमेष्ठिश्रीनेमिनाथश्रीपादपद्माराधनबलेन वादीभवज्रांकुशश्रीविशालकीर्तिपंडितदेववैयावृत्यतः श्रीमच्छिलाहारकुलकमलमार्तण्डतेज:पुंजराजाधिराजपर