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जैनसाहित्य और इतिहास
यह टीका प्रक्रिया-बद्ध है और बड़े अच्छे ढंग से लिखी गई है। इसकी श्लोकसंख्या ३३०० के लगभग है । प्रारंभके विद्यार्थियोंके लिए बड़ी उपयोगी है । इस ग्रन्थके आदि-अन्तमें कहीं भी कर्त्ताका नाम नहीं है । केवल एक जगह 1 पाँचवें पत्र में नाम आया है, जिससे मालूम होता है कि पंचवस्तुके रचयिता आर्य श्रुतकीर्ति हैं ।
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चन्द्र
कनड़ी भाषाके चन्द्रप्रभचरित नामक ग्रन्थ के कर्ता अग्गल कविने श्रुतकीर्तिको अपना गुरु बतलाया हैइदु परमपुरुनाथकुलभूभृत्समुद्भूतप्रवचनसरित्सरिनाथ- श्रुतकीर्तित्रैविद्यचक्रवर्तिपदपद्मनिधानदीपवर्तिश्रीमदग्गलदेव विरचिते प्रभचरिते- इत्यादि । और यह चरित शक संवत् १०११ ( वि० सं० ११४६) में बनकर समाप्त हुआ है । अतएव यदि आर्य श्रुतकीर्ति और श्रुतकीर्ति त्रैविद्य' चक्रवर्ति एक ही हों तो पंचवस्तुको भी अभयनन्दि महावृत्तिके पीछे की— विक्रमकी बारहवीं शताब्दि के प्रारंभकी — रचना समझना चाहिए । नंदिसंघकी गुर्वावली में श्रुतकीर्तिको वैयाकरण - भास्कर लिखा है ।
ये नन्दिसंघ, देशीयगण और पुस्तकगच्छके आचार्य थे । श्रुतकीर्ति नामके और भी कई आचार्य हो गये हैं ।
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४ - लघु जैनेन्द्र | इसकी एक प्रति अंकलेश्वर ( भरोंच) के दिगम्बर जैनमन्दिर है और दूसरी अधूरी प्रति परतागढ़ मालवा ) के पुराने दि० जैनमैन्दिरमें । यह अभयनन्दिकी वृत्तिके आधारसे लिखी गई है। पण्डित महाचन्द्रजी विक्रमकी इसी बीसवीं शताब्दि के ग्रन्थकर्ता हैं । इन्होंने संस्कृत,
- याम - वैर-वर्ण-कर-चरणादीनां संधीनां बहूनां संभवत्वात् संशयानः शिष्यः संपृच्छतिस्म । कस्सन्धिरिति ।
संज्ञास्वरप्रकृतिहल्जविसर्गजन्मा संधिस्तु पंचक इतीत्थमिहाहुरन्ये ।
तत्र स्वरप्रकृतिहरूजविकल्पतोऽस्मिन्संधिं त्रिधा कथयति श्रुतकीर्तिरार्यः ॥ २ - त्रैविद्यः श्रुतकीर्त्याख्यो वैयाकरण भास्करः ।
३ देखो जैनमित्र ता० २६ अगस्त १९१५ | :- महावृत्तिं शुंभत्सकलबुधपूज्यां सुखकरीं,
विलोक्योद्यद्ज्ञानप्रभुविभयनन्दीप्रवहिताम् । अनेकैः सच्छब्दैर्भ्रमविगतकैः संदृढभूतां ( ? ) प्रकुर्वेऽहं (टीकां ) तनुमतिमहाचन्द्रविबुधः ( ? )