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देवनन्दि और उनका जैनेन्द्र व्याकरण
उन्हीं की शिष्य - परम्परा में बल्कि उन्हींके शिष्य या प्रशिष्य जैनेन्द्रके कर्ता देवनन्दि या पूज्यपाद होंगे क्योंकि ताम्रपत्रकी मुनि-परम्परा में नन्द्यन्त नाम अधिक हैं, और इनका भी नाम नन्द्यन्त है; अतः जबतक कोई प्रमाण इसका विरोधी न मिले, तब तक हमें देवनन्दिको कुन्दकुन्दाम्नाय और देशीय गणके आचार्य चन्द्रनन्दिका शिष्य या प्रशिष्य माननेमें कोई दोष नहीं दिखता। उनका समय प्रायः विक्रमकी छठी शताब्दिका प्रारम्भ ही समझना चाहिए ।
४- - इस समयकी पुष्टि में एक और भी प्रमाण मिलता है । वि० सं० ९९० में बने हुए 'दर्शनसार' नामक प्राकृत ग्रन्थ में लिखा है कि पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दिने वि०सं० ५२६ में दक्षिण मथुरा या मदुरा में द्राविडसंघकी स्थापनी की । इससे भी पूज्यपाद का समय छठी शताब्दिका प्रारम्भ ठीक ज्ञात होता है । प्रो० पाठकके प्रमाण
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स्वर्गीय डा० काशीनाथ बापूजी पाठकने अपने शाकटायन व्याकरणसम्बन्धी लेखमें जो जो प्रमाण जैनेन्द्रका समय निर्णय करने के लिए दिये हैं उन सबको भी हम यहाँ उपयोगी समझकर दे देना चाहते हैं, यद्यपि वे सब शब्दार्णव- चन्द्रिका के सूत्र-पाठको असली जैनेन्द्र-सूत्रपाठ मानकर दिये हैं ।
१ - जैनेन्द्रको एक सूत्र है - ' हस्तादेयनुवस्तेये : ' ( २-३ - ३६ ) । इस सूत्र के अनुसार 'चि' का ' चाय ' हो जाता है, उस अवस्था में जब कि हाथसे ग्रहण करने योग्य हो, उत् उपसर्गके बाद न हो और चोरी करके न लिया गया हो । जैसे ' पुष्पप्रचायः । हस्तादेय न होने से पुष्पप्रचय, उत् उपसर्ग
१ सिरिपुज्जपादसीसो दावि संघस्स कारगो दुट्टो | णामेण वजणंदी पाहुडवेदी महासत्थो ।
पंचसए छब्बीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । दक्खिणमहरा जादो दाविडसंघो महामोहो ||
२ देखो इंडियन एण्टिक्वेरी जिल्द ४३, पृष्ठ २०५-१२ ।
३ इन प्रमाणों में जहाँ जहाँ जैनेन्द्रका उल्लेख हो वहाँ वहाँ शब्दार्णव चन्द्रिकाका सूत्रपाठ समझना चाहिए | सूत्रोंके नम्बर भी उसीके अनुसार दिये गये हैं ।