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देवनन्दि और उनका जैनेन्द्र व्याकरण
इनमेंसे पहले पद्यसे यह स्पष्ट है कि गुणनन्दिके शब्दार्णवके लिए यह प्रक्रिया नावके समान है और दूसरे पद्यमें कहा है कि सिंहके समान गुणनन्दि पृथ्वीपर सदा जयवन्त रहें । यदि इसके कर्ता स्वयं गुणनन्दि होते तो वे स्वयं ही अपने लिए यह कैसे कहते कि वे गुणनन्दि सदा जयवन्त रहें ? इससे तो साफ़ प्रकट होता है कि गुणनन्दि ग्रन्थकर्तासे कोई पृथक् ही व्यक्ति है जिसे वह श्रद्धास्पद समझता है ।
तीसरे पद्यमें भट्टारकशिरोमणि श्रुतकीर्ति देवकी प्रशंसा करता हुआ कवि कहता है कि वे मेरे मनरूप मानसरोवरमें राजहंसके समान चिरकालतक विराजमान रहें। इसमें भी ग्रन्थकर्ता अपना नाम प्रकट नहीं करते हैं; परन्तु ऐसा जान पड़ता है कि वे श्रुतिकीर्तिदेवके कोई शिष्य होंगे और संभवतः उन श्रुतिकीर्तिके नहीं जो पंचवस्तुके कर्ता हैं। ये श्रुतिकीर्ति पंचवस्तुके कर्त्तासे पृथक् जान पड़ते हैं। क्योंकि इन्हें प्रक्रियाके कर्त्ताने 'कविपति' बतलाया है, व्याक. रणज्ञ नहीं। ये वे ही श्रुतिकीर्ति मालूम होते हैं जिनका समय प्रो० पाठकने शक संवत् १०४५ या वि० सं० ११८० बतलाया है। श्रवणवेल्गोलके जैन गुरु
ओंने ' चारुकीर्ति पंडिताचार्य' का पद शक संवत् १०३९ के बाद धारण किया है और पहले चारुकीर्ति इन्हीं श्रुतकीर्तिके पुत्र थे। श्रवणवेल्गोलके १०८ वें शिलालेखमें इनका जिक्र है और इनकी बहुत ही प्रशंसा की गई है।
प्रक्रियाके कर्त्ताने इन्हें भट्टारकोत्तंस और श्रुतकीर्तिदेवयतिप लिखा है और इस लेखमें भी भट्टारकयति लिखा है। अतः ये दोनों एक मालूम होते हैं । आश्चर्य नहीं जो इनके पुत्र और शिष्य चारुकीर्ति पण्डिताचार्य ही इस प्रक्रियाके कर्ता हों।
देवनन्दिका समय १-लिङ्गानुशासनके कर्ता पं० वामन राष्ट्रकूट राजा जगत्तुंग या गोविन्द १ देखी · सिस्टिम्स आफ संस्कृत ग्रामर ' पृष्ठ ६७ २ देखो — कर्नाटक जैन कवि ' पृष्ठ २० ।
३ तत्र सर्वशरीरिरक्षाकृतमतिर्विजितेन्द्रियः । सिद्धशासनवर्द्धनप्रतिलब्धकीर्तिकालापकः ॥ २२ ॥ विश्रुतश्रुतकीर्तिभट्टारकयतिस्समजायत । प्रस्फुरद्वचनामृतांशुविनाशिताखिलहृत्तमाः ॥ २३ ॥