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देवनन्दि और उनका जैनेन्द्र व्याकरण
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बनाया है । इस सूत्रमें द्वादशवर्षात्मक बार्हस्पत्य संवत्सरपद्धतिको उल्लेख किया गया है । यह पद्धति प्राचीन गुप्त और कदम्बवंशी राजाओंके समय तक प्रचलित थी, इसके कई प्रमाण पाये गये हैं। प्राचीन गुप्तोंके शक संवत् ३९७ से ४५० ( वि० सं० ४५४ से ५८५) तकके पाँच ताम्रपत्र पाये गये हैं । उनमें चैत्रादि संवत्सरोंका उपयोग किया गया है और इन्हीं गुप्तोंके समकालीन कदम्बवंशी राजा मृगेशवर्माके ताम्रपत्रमें भी पौष संवत्सरका उल्लेख है । इससे मालूम होता है कि इस बृहस्पस्ति संवत्सरका सबसे पहले उल्लेख करनेवाले जैनेन्द्रव्याकरणके कर्ता हैं और इसलिए जैनेन्द्रकी रचनाका समय ईसवी सन्की पाँचवीं शताब्दिके उत्तरार्ध (विक्रमकी छठी शताब्दीके पूर्वार्ध) के लगभग होना चाहिए । यह तो पहले ही बताया जा चुका है कि जैनेन्द्रकी रचना ईश्वरकृष्णके पहले अर्थात् वि० सं० ५०७ के पहले नहीं हो सकती, क्योंकि उसमें वार्षगण्यका उल्लेख है।
यदि जैनेन्द्रका स्वयं देवनन्दिकृत न्यास उपलब्ध हो जाय, जिसके कि होनेका हमने अनुमान किया है, और उसमें इन सूत्रोंके विषयको प्रतिपादन करनेवाले वार्तिक आदि मिल जायँ-मिल जानेकी संभावना भी बहुत है-तो अवश्य ही पाठक महाशयके प्रमाण बहुत ही उपयोगी सिद्ध होंगे और इसी लिए हमने इन्हें यहाँ दे दिया है।
१ इस संवत्सरकी उत्पत्ति बृहस्पतिकी गति परसे हुई है, इस कारण इसे बार्हस्पत्य संवत्सर कहते हैं । जिस समय यह मालूम हुआ कि नक्षत्रमण्डल मेंसे बृहस्पतिकी एक प्रदक्षिणा लगभग १२ वर्षमें होती है, उसी समय इस संवत्सरकी उत्पत्ति हुई होगी, ऐसा जान पडता है । जिस तरह सूर्यकी एक प्रदक्षिणाके कालको एक सौर वर्ष और उसके १२ वें भागको मास कहते हैं, उसी तरह इस पद्धतिमें गुरुके प्रदक्षिणा-कालको एक गुरु-वर्ष
और उसके लगभग १२ वें भागको गुरु-मास कहते थे। सूर्यसानिध्यके कारण गुरु-वर्पमें कुछ दिन अस्त रहकर जिस नक्षत्रमें उदय होता है, उसी नक्षत्रके नाम गुरु-वर्षके मासोंके नाम रखे जाते थे। ये गुरुके मास वस्तुतः सौर वर्षीके नाम है, इस कारण इन्हें चैत्र संवत्सर, वैशाख संवत्सर आदि कहते थे। इस पद्धतिको अच्छी तरह समझनेके लिए लिए स्वगीय पं० शंकर बालकृष्ण दीक्षितका ' भारतीय ज्योतिःशास्त्राचा इतिहास ' और डा० फ्लीटके ' गुप्त इन्स्क्रिप्शन्स'में इन्हीं दीक्षित महाशयका अंगरेजी निबन्ध पढ़ना चाहिए।