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जैनसाहित्य और इतिहास
कुछ पंक्तियाँ छूटी हुई हैं' और अन्तमें कोई प्रशस्ति आदि नहीं है।
इस महावृत्तिके कर्ता अभयनन्दि मुनि हैं । उन्होंने न तो अपनी गुरुपरम्पराका ही परिचय दिया है और न ग्रन्थ-रचनाका समय ही दिया है परन्तु सूत्र ३-२-५५ की टीकामें एक जगह उदाहरण दिया है" तत्त्वार्थवार्तिकमधीयते ।" इससे मालूम होता है कि भट्टाकलंकदेवके बाद अर्थात् वि० की आठवीं नवीं शताब्दिके बाद-और पंचवस्तुके पूर्वोल्लिखित श्लोकमें इसी वृत्तिका उल्लेख जान पड़ता है, इस लिए आर्य श्रुतकीर्तिके अर्थात् विक्रमकी बारहवीं शताब्दिके पहले किसी समयमें वे हुए हैं । जैनेन्द्रकी उपलब्ध टीकाओंमें यही टीका सबसे प्राचीन मालूम होती है।
२ शब्दांभोजभास्कर न्यास । बम्बईके सरस्वती-भवनमें इसकी दो अपूर्ण प्रतियाँ मौजूद हैं। एक प्रतिमें १४ वे पत्रसे २९९ तक और फिर ६२० वें पत्रसे ७०३ तक ही पत्र हैं। १४ वें पत्रपर पहले अध्यायके पहले पादका १९ वाँ सूत्र चालू है और ७०३ पेजपर चौथे अध्यायके तीसरे पादका २११ वाँ सूत्र है । यह प्रति बहुत प्राचीन और शुद्ध है परन्तु आगसे झुलसी हुई है। दूसरी प्रतिमें केवल तीन अध्याय हैं। इसकी श्लोक संख्या १२००० है । इससे जान पड़ता है कि सम्पूर्ण ग्रन्थ १६००० के लगभग होगा। ___ अभयनन्दिकी वृत्तिसे यह बड़ा है और उससे पीछे बना है । इसमें महावत्तिके शब्द ज्योंके त्यों ले लिये गये हैं और तीसरे अध्यायके अन्तके एक श्लोमें अभयनन्दिको नमस्कार भी किया है। १-ओं नमः । श्रीमत्सर्वशवीतरागतद्वचनतदनुसारिगुरुभ्यो नमः ।
देवदेवं जिनं नत्वा सर्वसत्त्वाभयप्रदम् । शब्दशास्त्रस्य सूत्राणां महावृत्तिर्विरच्यते ।। १ ।। यच्छन्दलक्षणमसुव्रजपारमन्यैरव्यक्तमुक्तमभिधानविधौ दरिद्रैः।
तत्सर्वलोकहृदयप्रियचारुवाक्यैर्व्यक्तीकरोत्यभयनन्दिमुनिः समस्तम् ।। २ ॥ शिष्टाचारपरिपालनार्थमादाविष्टदेवतानमस्कारलक्षणं मंगलमिदमाहाचार्यः ।
इत्यभयनन्दिविरचितायां जैनन्द्रव्याकरणमहावृत्तौ पञ्चमाध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः । समाप्तश्चायं पञ्चमोऽध्यायः ।
२-नमः श्रीवर्धमानाय महते देवनन्दिने ।
प्रभाचन्द्राय गुरवे तस्मैचाभयनन्दिने ।।