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देवनान्द और उनका जैनेन्द्र व्याकरण
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प्राकृत और भाषामें कई ग्रन्थ लिखे हैं ।
५-जैनेन्द्र-प्रक्रिया । यह न्यायतीर्थ न्यायशास्त्री पं० बंशीधरजीने हाल ही लिखी है । इसका केवल पूर्वार्ध ही छपकर प्रकाशित हुआ है ।
शब्दार्णवकी टीकायें जैनेन्द्र-सूत्र-पाठके संशोधित परिवर्धित संस्करणका नाम-जैसा कि पहले लिखा जा चुका है-शब्दार्णव है। इसके कर्ता आचार्य गुणनन्दि हैं । यह बहुत संभव है कि सूत्र-पाठके सिवाय उन्होंने इसकी कोई टीका या वृत्ति भी बनाई हो जो कि अभीतक उपब्ध नहीं हुई है । __ गुणनन्दि नामके कई आचार्य हो गये हैं । एक गुणनन्दिका उल्लेख श्रवणबेल्गोलके ४२, ४३ और ४७ वें नम्बरके लिखालेखोंमें मिलता है । ये बलाकपिच्छके शिष्य और गृध्रपिच्छके प्रशिष्य थे । तर्क, व्याकरण और साहित्य शास्त्रोंके बहुत बड़े विद्वान् थे । इनके ३०० शास्त्रपारंगत शिष्य थे और उनमें ७२ शिष्य सिद्धान्तशास्त्री थे। आदि पंपके गुरु देवेन्द्र भी इन्हींके शिष्य थे। कर्नाटक-कवि
चरितके कीने इनका समय वि० संवत् ९५७ निश्चय किया है। क्योंकि इनके शिष्य देवेन्द्रके शिष्य आदि पंपका जन्म वि० सं० ९५९ में हुआ था और उसने ३९ वर्षकी अवस्थामें अपने सुप्रसिद्ध कनड़ी काव्य भारतचम्पू और आदिपुराण निर्माण किये हैं । हमारा अनुमान है कि ये ही गुणनन्दि शब्दार्णवके कर्ता होंगे।
चन्द्रप्रभचरित महाकाव्यके कर्ता वीरनन्दिका समय शक संवत ९०० के लगभग निश्चित होता है। क्यों कि वादिराजसूरिने अपने पार्श्वनाथकाव्यमें उनका स्मरण किया है और वीरनन्दिकी गुरुपरम्परा इस प्रकार है-१ श्री गुणनन्दि, २ विबुध गुणनन्दि, ३ अभयनन्दि और ४ वीरनन्दि । यदि पहले गुणनान्द और वीरनन्दिके बीचमें हम ७८ वर्षका अन्तर मान लें, तो पहले गुणनन्दिका समय वही शक संवत् ८२२ या वि० सं० ९५७ के लगभग आ जायगा । इससे यह निश्चय होता है कि वीरनन्दिकी गुरुपरम्पराके प्रथम गुणनन्दि और आदि पम्पके १-तच्छिष्यो गुणनन्दिपण्डितयतिश्चारित्रचक्रेश्वरः,
तर्कव्याकरणादिशास्त्रनिपुणः साहित्यविद्यापतिः । मिथ्यात्वादिमदान्धसिन्धुरघटासंघातकण्ठीरवो, भव्याम्भोजदिवाकरो विजयतां कन्दर्पदोपहः ॥