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देवनन्दि और उनका जैनेन्द्र व्याकरण
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इसके कर्ता प्रभाचन्द्राचार्य हैं और वे प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रके ही कर्ता मालूम होते हैं । क्योंकि इसके प्रारंभमें ही यह कहा गया है कि अनेकान्तकी चर्चा उक्त दोनों ग्रन्थों में की गई है, इस लिए यहाँ नहीं करते। अवश्य ही इसमें उन्होंने अपने ही ग्रन्थोंको देखने के लिए कहा है, " अथ कोऽयमनेकान्तो नामेत्याह-अस्तित्वनास्तित्वनित्यत्वानित्यत्वसामान्यासामान्याधिकरण्यविशेषणविशेष्यादिकोऽनेकान्तः स्वभावो यस्यार्थस्यासावनेकान्तः अनेकान्तात्मक इत्यर्थः । तत्र च प्रतिष्ठितमिथ्याविकल्पकल्पिताशेषविप्रतिपत्तिः प्रत्यक्षादिप्रमाणमेव प्रत्यस्तमयतीति (2) तद्धिततया तदात्मकत्वं चार्थस्य अध्यक्षतोनुमानादेश्च यथा सिद्धयति तथा प्रपंचतः प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचन्द्रे च प्रतिरूपितमिह दृष्टव्यम् ।
इसके मंगलाचरणमें पूज्यपाद और अकलंकको नमस्कार किया गया है। अन्तकी प्रशस्ति देखनेको मिली नहीं । उससे शायद कुछ विशेष प्रकाश पड़े।
३-पंचवस्तु । भांडारकर रिसर्च इन्स्टिटयूटमें इसकी दो प्रतियाँ मौजूद हैं, जिनमें एक ३००-४०० वर्ष पहले की लिखी हुई है और बहुत शुद्ध है । पत्रसंख्या ९१ है । इसपर लेखकका नाम और प्रति लिखनेका समय आदि नहीं है। इसके अन्तमें केवल इतना लिखा हुआ है " कृतिरियं देवनंद्याचार्यस्य परवादिमथनस्य ।। छा ।। शुभं भवतु लेखकपाठकयोः ।। श्रीसंघस्य ॥”
दूसरी प्रति रत्नकरण्डश्रावकाचारवचनिका आदि अनेक भाषाग्रन्थोंके रचयिता. सुप्रसिद्ध पण्डित सदासुखजीके हाथकी संवत् १९१० की लिखी हुई है।
१ नं० १०५९ सन् १८८७-९१ की रिपोर्ट । २ नं० ५९० सन् १८७५-७६ की रिपोर्ट | इस ग्रन्थकी एक प्रति परताबगढ़ ( मालवा ) के पुराने दि० जनमन्दिरके भंडा. रमें भी है । देखो जैनमित्र ता० २६ अगस्त १९१५।। ३-अब्द नभश्चन्द्रविधिस्थिरांके शुद्धसहय॑म (?) युक्चतुर्थ्याम् । सत्प्रक्रियाबन्धनिबन्धनेयं सद्वस्तुवृत्तीरदनात्समाप्ता (?) श्रीमन्नराणामधिवेशराज्ञि श्रीरामसिंहे विलसत्यलोखे । श्रीमद्वधेनेह सदासुखेन श्रीयुक्फतेलालनिजात्मबुद्धथै ।। शाब्दीयशास्त्रं पठितं न यैस्तैः स्वदेहसंपालनभारवद्भिः । किं दर्शनीयं कथनीयमेतद् वृथांगसंधावपलापवद्भिः ॥ यह प्रति भी प्रायः शुद्ध है।