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देवनन्दि और उनका जैनेन्द्र व्याकरण
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इत्येकशेषस्य स्वाभाविकस्याभिधाने दर्शनात् केषांचित्तथा वचनोपलम्भाच्च न विरुद्धयते ।" इसमें स्वाभाविकताके कारण, एकशेषकी अनावश्यकता प्रतिपादन की है और यह अनावश्यकता जैनेन्द्र के वास्तविक सूत्र-पाठमें ही उपलब्ध होती है। " स्वाभाविकत्वादभिधानस्यैकशेषा नारम्भः” (१-१-९९) यह सूत्र शब्दार्णववाले पाठमें नहीं है, अतः विद्यानन्द भी पूर्वोक्त सूत्रवाले जैनेन्द्र पाठके माननेवाले थे । पाठकोंको यह स्मरण रखना चाहिए कि उपलब्ध व्याकरणोंमें 'अनेकशेष' व्याकरण केवल देवनन्दिकृत ही है, दूसरा नहीं ।
४-तत्त्वार्थ-टीका 'सर्वार्थसिद्धि के कर्ता स्वयं पूज्यपाद या देवनन्दि हैं । इस टीका अध्याय ५, सूत्र २४ की व्याख्या करते हुए वे लिखते हैं, “ 'अन्यतोऽपि' इति तसि कृते सर्वतः ।” और इसी सूत्रकी व्याख्या करते हुए राजवार्तिककार लिखते हैं, " ' दृश्यतेऽन्यतोपाति' तसि कृते सर्वेषु भवेषु सर्वत इति भवति ।” जान पड़ता है कि या तो सर्वार्थसिद्धिकारने इस सूत्रको संक्षेप करके लिखा होगा, या लेखकों तथा छपानेवालोंने प्रारंभका ' दृश्यते ' शब्द छोड़ दिया होगा । वास्तवमें यह पूरा सूत्र ' दृश्यतेऽन्यतोपि' ही है और यह अभयनन्दिवाले सूत्र-पाठके अ० ४ पा० ७ का ७५ वाँ सूत्र है । परन्तु शब्दार्णववाले पाठमें न तो यह सूत्र है और न इसके प्रतिपाद्यका विधानकर्ता कोई दूसरा सूत्र है। इससे सिद्ध है कि पूज्यपादका असली सूत्रपाठ वही है जिसमें उक्त सूत्र मौजूद है।
५-भट्टाकलंकदेवने तत्त्वार्थराजवार्तिकमें 'आये परोक्ष' (अ० १, सू० ११) की व्याख्याने “ सर्वादि सर्वनाम । ” ( १-१-३५ ) सूत्रका उल्लेख किया है, इसी तरह पण्डित आशाधरने अनगारधर्मामृतटीका (अ० ७ श्लो० २४) में " स्तोके प्रतिना” (१-३-३७) और 'भार्थे ” (१-४-१४ ) इन दो सूत्रोंको उद्धृत किया है और ये तीनों ही सूत्र जैनेन्द्रके अभयनन्दिवृत्तिवाले सूत्रपाठमें ही हैं । शब्दार्णववाले पाठमें इनका अस्तित्व ही नहीं है । अतः अकलंकदेव और पं० आशाधर इसी अभयनन्दिवाले पाठको ही माननेवाले थे । अकलंकदेव वि. की आठवीं नौवीं शताब्दिके और आशाधर १३ वीं शताब्दिके विद्वान् हैं ।
६-६० श्रीलालजी शास्त्रीने शब्दार्णव-चन्द्रिकाकी भूमिकामे लिखा है कि " आचार्य पूज्यपादने स्वनिर्मित ' सर्वार्थसिद्धि' में ' प्रमाणनयैरधिगमः ' ( अ० १ सू. ६) की टीकामें यह वाक्य दिया है-' नयशब्दस्याल्पान्तरत्वात्पूर्व