________________
१००
जैनसाहित्य और इतिहास
पहला जैन व्याकरण जहाँ तक हम जानते हैं, जैनोंका सबसे पहला संस्कृत व्याकरण यही है । अभी तक इसके पहलेका कोई भी व्याकरण-ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हुआ है । शाकटायन, सिद्धहेमशब्दानुशासन आदि सब इससे पीछेके हैं । इसके सूत्र बहुत ही संक्षिप्त हैं । संज्ञाकृत लाघवको भी इसमें स्वीकार किया है, जब कि पाणिनीयमें संज्ञाकृत लाघव ग्रहण नहीं किया है। यह अनेकशेष व्याकरण है।
दो तरहके मूत्र-पाठ जैनेन्द्र व्याकरणके मूल सूत्र-पाठ दो प्रकारके उपलब्ध हैं-एक तो वह जिसपर आचार्य अभयनन्दिकी ' महावृत्ति' तथा श्रुतकीर्तिकृत 'पंचवस्तु' नामकी प्रक्रिया है; और दूसरा वह जिसपर सोमदेवसूरिकृत 'शब्दार्णव-चन्द्रिका' और गुणन्दिकृत 'प्रक्रिया' है। पहले प्रकारके पाठमें लगभग ३००० और दूसरेमें लगभग ३७०० सूत्र हैं, अर्थात् एकसे दूसरेमें कोई ७०० सूत्र अधिक हैं, और जो ३००० सूत्र हैं वे भी दोनोंमें एकसे नहीं हैं। अर्थात् दूसरे सूत्रपाठमें पहले सूत्र-पाठके सैकड़ों सूत्र परिवर्तित और परिवर्धित भी किये गये हैं । पहले प्रकारका सूत्र-पाठ पाणिनीय सूत्र-पाठके ढंगका है, वर्तमानदृष्टिसे वह कुछ अपूर्ण-सा जान पड़ता है और इसी लिए महावृत्तिमें बहुतसे वार्तिक तथा उपसंख्यान आदि बनाकर उसकी पूर्णता की गई दिखलाई देती है, जब कि दूसरा पाठ प्रायः पूर्ण-सा जान पड़ता है और इसी कारण उसकी टीकाओंमें वार्तिक आदि नहीं दिखलाई देते । दोनों पाठोंमें बहुत-सी संज्ञायें भी भिन्न प्रकार की हैं।
इन भिन्नताओंके होते हुए भी दोनों पाठोंमें समानताकी भी कमी नहीं है। दोनोंके अधिकांश सूत्र समान हैं, दोनोंके प्रारंभका मंगलाचरण बिलकुल एक है और दोनोंके कर्ताओंका नाम भी देवनन्दि या पूज्यपाद लिखा हुआ मिलता है ।
असली मूत्रपाठ अब प्रश्न यह है कि इन दोनों से स्वयं देवनन्दि या पूज्यपादका बनाया हुआ असली सूत्र-पाठ कौन-सा है ?
हमारे खयालमें आचार्य देवनन्दि या पूज्यपादका बनाया हुआ सूत्र-पाठ वही है जिसपर अभयनन्दिने अपनी महावृत्ति लिखी है । यह सूत्रपाठ उस समयतक तो ठीक समझा जाता रहा जब तक शाकटायन व्याकरण नहीं बना।