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देवनन्दि और उनका जैनेन्द्र व्याकरण
देती है, उन देवनन्दीको मैं नमस्कार करता हूँ'। उन्होंने देवनन्दीकी वाणीकी जो विशेषता बतलाई है, वह उनके तीन ग्रन्थोंको लक्ष्य करके है । शरीरके मैलको नाश करनेके लिए वैद्यकशास्त्र और वचनका मैल दूर करने के लिए समाधितंत्र; तब वचन-दोषको दूर करनेवाली उनकी रचना जैनेंद्र व्याकरण ही हो सकती है ।
इनके सिवाय विक्रमकी आठवीं शताब्दिके बाद कनड़ी भाषामें जितने काव्यग्रन्थ लिखे गये हैं, प्रायः उन सभीके प्रारंभिक श्लोकोंमें पूज्यपादकी प्रशंसा की
जैनेन्द्रकी प्रत्येक हस्तलिखित प्रतिके प्रारंभमें जो श्लोक मिलता है, उसमें ग्रन्थकर्त्ताने ' देवनन्दितपूजेशं' पदमें जो कि भगवानका विशेषण है अपना नाम भी प्रकट कर दिया है। संस्कृत प्राकृत ग्रन्थोके मंगलाचरणों में यह पद्धति अनेक विद्वानोंने स्वीकार की है। इससे स्वयं ग्रन्थकर्ताके वचनोंसे भी जैनेन्द्रके कर्ता 'देवनन्दि' ठहरते हैं।
गणरत्नमहोदधिके कर्ता श्वेताम्बर विद्वान् वर्धमान और हैम शब्दानुशासनके लघुन्यास बनानेवाले कनकप्रभ भी जैनेन्द व्याकरणके कर्ताका नाम देवनन्दि ही बतलाते हैं। अतः अब इस विषयमें किसी प्रकारका कोई सन्देह बाकी नहीं रह गया कि यह व्याकरण देवनन्दि या पूज्यपादका बनाया हुआ है।
१ अपाकुर्वन्ति यद्वाचः कायावाञ्चित्तसंभवम् ।
कलङ्कमङ्गिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ।। २ देखो हिस्ट्री आफ दि कनड़ी लिटरेचर । ३ लक्ष्मीरात्यन्तिकी यस्य निरवद्याऽवभासते ।
देवनन्दितपूजेशं नमस्तस्मै स्वयंभुवे ।। क-नीतिवाक्यामृतके मंगलाचरणमें सोमदेव कहते हैं
सोमं सोमसमाकारं सोमाभं सोमसंभवम् ।
सोमदेवं मुनि नत्वा नीतिवाक्यामृतं ब्रुवे ।। ख--आचार्य अनन्तवीर्य लघीयस्त्रयकी वृत्तिके प्रारंभमें कहते हैं
जिनाधीश मुनि चन्द्रकमलंकं पुनः पुनः ।
अनन्तवीर्यमानौमि स्याद्वादन्यायनायकम् ॥ ५ शालातुरीय-शकटाङ्गज-चन्द्रगोमि-दिग्वस्त्र-भर्तृहरि-वामन-भोजमुख्याः ।