________________
जैनसाहित्य और इतिहास
८:
मूलमें शामिल कर दिये हैं । विद्यावृद्धसमुद्देशके, नीचे लिखे २१ वें, २३ वें और २५ वें सूत्रोंको आप टीकाकर्त्ताका बतलाते हैं१-" वैवाहिकः शालीनो जायावरोऽघोरो गृहस्थाः ॥” २१ २-बालाखिल्य औदुम्बरी वैश्वानराः सद्यःप्रक्षल्यकश्चेति
वानप्रस्थाः ॥ २३ ३-"कुटीरकबह्वोदकहंस-परमहंसा यतयः" ॥ २५ ।
इसका कारण आपने बतलाया है कि मुद्रित पुस्तकमे और हस्तलिखित मूलपुस्तकमें ये सूत्र नहीं हैं । परन्तु
१-जब तक दश पाँच हस्तलिखित प्रतियाँ प्रमाणमें पेश न की जा सकें, तब तक यह नहीं माना जा सकता कि मुद्रित और मूलपुस्तकमें जो पाठ नहीं है वे मूलकाके नहीं है-ऊपरसे जोड़ दिये गये हैं । इस तरहके हीन अधिक पाठ जुदी जुदी प्रतियोंमें अकसर मिलते हैं।
२-मूलक ने पहले वर्णोके भेद बतलाकर फिर आश्रमोंके भेद बतलाये हैंब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और यति । फिर ब्रह्मचारियोंके उपकुर्वाण, नैष्ठिक,
और क्रतुप्रद ये तीन भेद बतलाकर उनके लक्षण दिये हैं । इसके आगे गृहस्थ, वानप्रस्थ और यतियोंके लक्षण क्रमसे दिये हैं; तब यह स्वाभाविक और क्रमप्राप्त है कि ब्रह्मचारियोंके समान गृहस्थों, वानप्रस्थों और यतियोंके भी भेद बतलाये जाय और वे ही उक्त तीन सूत्रोंमें बतलाये गये हैं । तब यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि प्रकरणके अनुसार उक्त तीनों सूत्र अवश्य रहने चाहिए और मूलक ने ही उन्हें रचा होगा । जिन प्रतियोंमें उक्त सूत्र नहीं हैं; उनमें उन्हें भूलसे ही छूटे हुए समझना चाहिए। __ ३–यदि इस कारणसे ये मूलकर्ताके नहीं है कि इनमें बतलाये हुए भेद
जैनमतसम्मत नहीं हैं, तो उपकुर्वाण, कृतुप्रद आदि ब्रह्मचारियोंके भेद भी किसी जैनग्रन्थमें नहीं लिखे हैं, तब उनके सम्बन्धके जितने सूत्र हैं, उन्हें भी मूलक के नहीं मानने चाहिए। यदि सूत्रोंके मूलकर्ताकृत होनेकी यही कसौटी ठहरा दी जाय, तब तो इस ग्रन्थका आधेसे भी अधिक भाग टीकाकारकृत ठहर जायगा। क्योंकि इसमें सैकड़ों ही सूत्र ऐसे हैं जिनका जैनधर्मके साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं है और कोई भी विद्वान् उन्हें जैनसम्मत सिद्ध नहीं कर सकता।