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देवनन्दि और उनका जैनेन्द्र व्याकरण
जो १३ वीं शक्षणः विशेषण दिया है कर्त्ताने देवनन्दिको ।
उसका नाम है । हरिवंशपुराणके कर्त्ताने देवनन्दिको ‘इंद्रचंद्रार्कजैनेंद्रव्यापिव्याकरणक्षिणः ' विशेषण दिया है । शब्दार्णवचंद्रिकाकी ताड़पत्रवाली प्रतिमें, जो १३ वीं शताब्दिके लगभगकी लिखी हुई मालूम होती है, 'इंद्रश्चन्द्रः शकटतनयः' आदि श्लोकमें इन्द्रके व्याकरणका उल्लेख किया है । बहुत अधिक समय हुआ यह नष्ट हो गया है। जब यह उपलब्ध ही नहीं है तब इसके विषयमें कुछ कहनेकी आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। यद्यपि आजकलके समयमें इस बातपर कोई भी विद्वान् विश्वास नहीं कर सकता है कि भगवान् महावीरने भी कोई व्याकरण बनाया होगा और वह भी मागधी या प्राकृतका नहीं, किन्तु ब्राह्मणों की खास भाषा संस्कृतका । तो भी यह निस्सन्देह है कि वह व्याकरण 'जैनेन्द्र ' तो नहीं था। यदि बनाया भी होगा तो वह 'ऐन्द्र' ही होगा। क्यों कि हरिभद्रसूरि और हेमचंद्रसूरि उसीका उल्लेख करते हैं, जैनेन्द्रका नहीं। जान पड़ता है, विनयविजय और लक्ष्मीवल्लभने पीछेसे 'ऐन्द्र' को ही 'जैनेन्द्र' बना डाला है। उनके समयमें भी 'ऐन्द्र' अप्राप्य था, इसलिए उन्होंने प्राप्य — जैनेन्द्र' को ही भगवान महावीरकी कृति बतलाना विशेष सुकर और लाभप्रद सोचा।
हरिभद्रसूरि विक्रमकी आठवीं शताब्दिके और हेमचन्द्रसूरि तेरहवीं शतादिके विद्वान् हैं जिन्होंने 'ऐन्द्र' को भगवानका व्याकरण बतलाया है; परंतु 'जैनेन्द्र' को भगवत्प्रणीत बतलानेवाले विनयावजय और लक्ष्मीवल्लभ विक्रमकी अठारहवीं शताब्दिमें हुए हैं।
भगवद्वाग्वादिनी विनयविजयजीके इस उल्लेखने बड़ा काम किया कि भगवत्प्रणीत व्याकरणका नाम — जैनेन्द्र' है। बहुत संभव है कि भगवत्प्रणीत व्याकरणको 'जैनेन्द्र' लिखते समय उनका लक्ष्य इस देवनन्दि या पूज्यपादकृत — जैनेन्द्र ' पर ही रहा हो; परन्तु जान पड़ता है कि वे इस विषयमें उक्त उलेखके सिवाय
और कुछ प्रयत्न नहीं कर सके । यह काम बाकी ही पड़ा रहा कि जैनेन्द्र व्याकरण लोगोंके समक्ष उपस्थित कर दिया जाय और उसे उनके कुछ समय बाद वि० सं० १७९७ में एक विद्वान्ने पूरा किया। उन्होंने साक्षात्
१" तेन प्रणष्टमैन्द्रं तदस्माद्याकरणं भुवि "-कथासरित्सागर, तरंग ४