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जैनसाहित्य और इतिहास
पिताने पाठशालामें गुरुके पास पढ़नेके लिए भेजा है, यह जानकर इन्द्र स्वर्गसे
आया और पण्डितके घर, जहाँ भगवान् थे वहाँ, गया। उसने भगवानसे पण्डितके मनमें जो जो सन्देह थे, उन सबको पूछा । जब सब लोग यह सुननेके लिए उत्कर्ण हो रहे थे कि देखें यह बालक क्या उत्तर देता है, तब भगवान् वीरने सब प्रभोंके उत्तर दे दिये, और तब ‘जैनेन्द्र व्याकरण' बना।
परन्तु इस प्रसंगके वे सब उल्लेख अपेक्षाकृत अर्वाचीन ही हैं जिनमें भगवानके उत्तररूप इस व्याकरणका नाम 'जैनेन्द्र' बतलाया है । प्राचीन उल्लेखोंमें इसका नाम जैनेन्द्रकी जगह 'ऐन्द्र' प्रकट किया है, जैसा कि आवश्यकसूत्रकी हारिभद्रीयवृत्तिके पृष्ठ १८२ में लिखा है।
इसी प्रकार सुप्रसिद्ध आचार्य हेमचन्द्रने अपने योगशास्त्रके प्रथम प्रकाशमें लिखों है कि भगवानने इन्द्रके लिए जो शब्दानुशासन कहा, उपाध्यायने उसे सुनकर लोकमें 'ऐन्द्र' नामसे प्रकट किया। अर्थात् इन्द्रके लिए जो व्याकरण कहा गया, उसका नाम 'ऐन्द्र' हुआ।
प्राचीन कालमें इन्द्रनामक आचार्यका बनाया हुआ एक संस्कृत व्याकरण था। उसका उल्लेख अनेक ग्रन्थोंमें मिलता है । ऊपर दिये हुए बोपदेवके श्लोकमें भी
१-शक्रस्य तत्समक्षं लेखाचार्यसमक्षं भगवन्तं तीर्थकरं आसने निवेश्य शब्दस्य लक्षणं पृच्छति । भगवता च व्याकरणं अभ्यधायि । व्याक्रियन्ते लौकिकसामयिकाः शब्दाः अनेन इति व्याकरणं शब्दशास्त्रम् । तदवयवाः केचन उपाध्यायेन गृहीताः, ततश्च ऐन्द्रं व्याकरण संजातम् । २-मातापितृभ्यामन्येयुः प्रारब्धेऽध्यापनोत्सवे ।
आः सर्वज्ञस्य शिष्यत्वमितीन्द्रस्तमुपास्थित ॥ ५६ ॥ उपाध्यायासने तस्मिन्वासवेनोपवेशितः । प्रणम्य प्रार्थितः स्वामी शब्दपारायणं जगौ ॥ ५७ ।। इदं भगवतेन्द्राय प्रोक्तं शब्दानुशासनम् ।
उपाध्यायेन तच्छ्रुत्वा लोकेष्वैन्द्रमितीरितम् ॥ ५८ ।। ३ डाँ० ए० सी० बर्नेलने इन्द्रव्याकरणके विषयमें चीनी तिव्वतीय और भारतीय साहित्यमें जो जो उल्लेख मिलते है उनको संग्रह करके — ओन दि ऐन्द्रस्कूल ऑफ संस्कृत ग्रामेरियन्स ' नामकी एक बड़ी पुस्तक लिखी है ।