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सोमदेवसूरिका नीतिवाक्यामृत
पहले आक्षेपके सम्बन्ध में हमारा निवेदन है कि सोनीजी वैदिक साहित्य और उसके इतिहाससे सर्वथा अनभिज्ञ हैं; फिर भी उनके साहसकी प्रशंसा करनी चाहिए कि उन्होंने मनु या शुक्र के नामके किसी ग्रन्थके किसी एक संस्करणको देखकर ही अपनी अद्भुत राय दे डाली ।
सोनीजीने सारी टीका में मनुके नामके पाँच लोकोंपर, याज्ञवल्क्यके एक लोकपर, और शुक्र दो श्लोकोंपर अपने नोट दिये हैं कि ये श्लोक उक्त आचार्योंके ग्रन्थोंमें नहीं हैं । सचमुच ही उपलब्ध मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति और शुक्रनीति में उद्धृत श्लोकोंका पता नहीं चलता । परन्तु जैसा कि सोनीजी समझते हैं, इसका कारण टीकाकारकी दुष्टता या मूलकर्ताको नीचा दिखाने की प्रवृत्ति नहीं है ।
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बात यह है कि हिन्दू धर्म - शास्त्रों में समय समय पर बहुत कुछ परिवर्तन होते रहे हैं | अपने निर्माण - समय में वे जिस रूप में थे, इस समय उस रूपमें नहीं मिलते | उनके संक्षिप्त संस्करण भी हुए हैं और प्राचीन ग्रन्थों के नष्ट हो जानेसे वे फिर संग्रहीत किये गये हैं । इसके सिवाय एक स्थानकी प्रतिके पाठोंसे दूसरे स्थानोंकी प्रतियों के पाठ नहीं मिलते । इस विषय में प्राचीन साहित्य के खोजियों ने बहुत कुछ छान-बीन की है और इस विषयपर बहुत कुछ प्रकाश डाला है । कौटिलीय अर्थशास्त्र की भूमिका में उसके सुप्रसिद्ध सम्पादक पं० आर० शामशास्त्री लिखते हैं
"अतश्च चाणक्यकालिकं धर्मशास्त्रमधुनातनाद्याज्ञवल्क्यधर्मशास्त्रदन्यदेवासीदिति प्रतिभाति । एवमेव ये पुनर्मानव - बार्हस्पत्यौशनसा भिन्नाभिप्रायास्तत्र तत्र कौटिल्येन परामृष्टाः न तेऽअधुनोपलभ्यमानेषु ततद्धर्मशास्त्रेषु दृश्यन्त इति कौटिल्यपरामृष्टानि तानि शास्त्राण्यन्यान्येवेति बाढं सुवचम् |
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अर्थात् इससे मालूम होता है कि चाणक्यके समयका याज्ञवल्क्य धर्मशास्त्र वर्तमान याज्ञवल्क्य शास्त्र ( स्मृति ) से कोई जुदा ही था । इसी तरह कौटिल्यने अपने अर्थशास्त्र में जगह जगह बार्हस्पत्य, औशनस आदिसे जो अपने भिन्न अभिप्राय प्रकट किये हैं वे अभिप्राय इस समय मिलनेवाले उन धर्मशास्त्रों में नहीं दिखलाई देते । अतएव यह अच्छी तरह सिद्ध होता है कि कौटिल्यने जिन शास्त्रों का उल्लेख किया है, वे इनके सिवाय दूसरे ही थे ।
स्वर्गीय बाब रमेशचन्द्र दत्तने अपने ' प्राचीन सभ्यता के इतिहास में लिखा