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जनसाहित्य और इतिहास
नीतिवाक्यामृतकी गद्यप्रशस्तिसे भी यह मालूम होता है कि वे नेमिदेवके शिष्य थे । साथ ही उसमें यह भी लिखा है कि वे महेन्द्रदेव भट्टारकके अनुज थे। इन तीनों महात्माओं-यशोदेव, नेमिदेव और महेन्द्रदेवके सम्बन्धमें हमें और कोई भी बात ज्ञात नहीं है । न तो कोई रचना ही उपलब्ध है और न अन्य किसी ग्रन्थादिमें इनका कोई उल्लेख ही मिला है। इनके पूर्वके आचार्यों के विषयमें भी कुछ ज्ञात नहीं है। सोमदेवसूरिकी शिष्य-परम्परा भी अज्ञात है। यशस्तिलकके टीकाकार श्रीश्रुतसागरसूरिने एक जगह लिखा है कि वादिराज
और वादीभसिंह दोनों ही सोमदेवके शिष्य थे'; परन्तु इसके लिए उन्होंने जो प्रमाण दिया है वह किस ग्रन्थका है, यह नहीं बतलाया। यशस्तिलककी रचना शकसंवत् ८८१ (विक्रम १०१६) में समाप्त हुई है और वादिराजने अपना पार्श्वनाथचरित शक संवत् (वि० १०८२ ) में पूर्ण किया है; अर्थात् दोनोंके बीचमें ६६ वर्षका अन्तर है । ऐसी दशा में उनका गुरु-शिष्यका नाता होना दुर्घट जान पड़ता है । इसके सिवाय वादिराजके गुरुका नाम मतिसागर था और वे द्रविड संघके आचार्य थे। अब रहे वादीभसिंह, सो उनके गुरुका नाम पुष्पण था और पुष्पपेण अकलंकदेवके गुरुभाई थे, इसलिए उनका समय सोमदेवसे बहुत पहले जा पड़ता है। ऐसी अवस्था वादिराज और वादीभसिंहको सोमदेवका शिष्य नहीं माना जा सकता। ग्रन्थकर्ताके गुरु बड़े भारी तार्किक थे। उन्होंने तिरानवे वादियोंको पराजित करके विजय-कीर्ति प्राप्त की थी।
इसी तरह महेन्द्रदेव भट्टारक भी दिग्विजयी विद्वान् थे। उनका 'वादीन्द्रकालानल' उपपद इस बातकी घोषणा करता है।
तार्किकत्व-श्रीसोमदेवसूरि भी अपने गुरु और अनुजके सदृश बड़े भारी तार्किक विद्वान् थे । वे इस ग्रन्थकी प्रशस्तिमें कहते हैं:
अल्पेऽनुग्रहधीः समे सुजनता मान्ये महानादरः, सिद्धान्तोऽयमुदात्तचित्रचरिते श्रीसोमदेवे मयि । १ “ उक्तं च वादिराजेन महाकविना-...स वादिराजोऽपि श्रीसोमदेवाचार्यस्य शिष्य:वादीभसिंहोऽपि मदीयशिष्यः श्रीवादिराजोऽपि मदीयशिष्यः' इत्युक्तत्वाच्च ।"
-यशस्तिलकटीका आ० २, पृ० २६५ २ यशस्तिलकके ऊपर उद्धत हुए श्लोकमें उन महावादियोंकी संख्या जिनको श्रीनेमिदेवने पराजित किया था-तिरानवे है; परन्तु नीतिवाक्यामृतकी गद्यप्रशस्तिमें पचपन है ।