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सोमदेवसूरिका नीतिवाक्यामृत
यः स्पर्धेत तथापि दपदृढताप्रौढिप्रगाढाग्रहस्तस्याखर्वितगर्वपर्वतपविर्मद्वाक्कृतान्तायते ।। सारांश यह कि मैं छोटोंके साथ अनुग्रह, बराबरीवालोंके साथ सुजनता और बड़ोंके साथ मान् आदरका वर्ताव करता हूँ। इस विषयमें मेरा चरित्र बहुत ही उदार है । परन्तु जो मुझे ऐंठ दिखाता है, उसके लिए, गर्वरूपी पर्वतको विध्वंस करनेवाले मेरे वज्र-वचन कालस्वरूप हो जाते हैं । दर्पान्धबोधबुधसिन्धुरसिंहनादे, वादिद्विपोद्दलनदुर्धरवाग्विवादे । श्रीसोमदेवमुनिपे वचनारसाले, वागीश्वरोऽपि पुरतोऽस्ति
न वादकाले ॥ भाव यह कि अभिमानी पण्डित गजोंके लिए सिंहके समान ललकारनेवाले और वादिगजोंको दलित करनेवाला दुर्धर विवाद करनेवाले श्रीसोमदेव मुनिके सामने, वादके समय वागीश्वर या देवगुरु बृहस्पति भी नहीं ठहर सकते । यशस्तिलक चम्पूकी उत्थानिकामें कहा है
आजन्मकृदभ्यासाच्छुष्कात्तर्कात्तृणादिव ममास्याः ।
मतिसुरभेरभवदिदं सूक्तिपयः सुकृतिनां पुण्यैः ॥१७ अर्थात् मेरी जिस बुद्धिरूपी गौने जीवन-भर तर्करूपी सूखा घास खाया, उसीसे सजनोंके पुण्यसे अब यह काव्यरूपी दुग्ध उत्पन्न हो रहा है। इस उक्तिसे अच्छी तरह प्रकट होता है कि श्रीसोमदेवसूरिने अपने जीवनका बहुत बड़ा भाव तर्कशास्त्रके अभ्यासमें ही व्यतीत किया था। उनके स्याद्वादाचलसिंह, वादीभपंचानन और तार्किकचक्रवर्ती पद भी इसी बातके द्योतक हैं ।
परन्तु वे केवल तार्किक ही नहीं थे, काव्य, व्याकरण, धर्मशास्त्र और राजनीति आदिके भी धुरंधर विद्वान् थे ।
कवित्व-उनका यशस्तिलकचम्पू महाकाव्य इस बातका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि वे महाकवि थे और काव्यकलापर भी उनका असाधारण अधिकार था। समूचे संस्कृत साहित्यमें यशस्तिलक एक अद्भुत काव्य है और कवित्वके साथ उसमें ज्ञानका विशाल खजाना संगृहीत है। उसका गद्य भी कादम्बरी, तिलकमञ्जरी आदिकी टक्करका है । सुभाषितोंका तो उसे आकर ही कहना चाहिए । उसकी प्रशंसामें स्वयं ग्रन्थकर्त्ताने यत्र तत्र जो सुन्दर पद्य कहे हैं, वे जानने योग्य हैं