________________
सोमदेवसूरिका नीतिवाक्यामृत
चिरकालसे शास्त्रसमुद्र के बिल्कुल नीचे डूबे हुए शब्द - रत्नों का उद्धार करके सोमदेव पण्डितने जो यह बहुमूल्य आभूषण ( काव्य ) बनाया है, उसे श्रीसरस्वती देवी धारण करें ।
६९
इन उक्तियोंसे इस बातका आभास मिलता है कि आचार्य सोमदेव किस श्रेणी के कवि थे और उनका उक्त महाकाव्य कितना महत्त्वपूर्ण है । पूर्वोक्त उक्तियोंमें अभिमानकी मात्रा विशेष रहनेपर भी वे अनेक अंशों में सत्य जान पड़ती हैं । सचमुच ही यशस्तिलक शब्द - रत्नों का खजाना है और जिस तरह माघकाव्य के विषय में कहा जाता है, उसी तरह यदि कहा जाय कि इस काव्यको पढ़ लेनेपर फिर कोई नया शब्द नहीं रह जाता, तो कुछ अत्युक्ति न होगी । इसी तरह इसके द्वारा सभी विषयोंकी व्युत्पत्ति हो सकती है । व्यवहारदक्षता बढ़ाने की तो इसमें ढेर सामग्री है।
महाकवि सोमदेवके वाक्कल्लोलपयोनिधि, कविराजकुंजर और गद्यपद्यविद्याधर चक्रवर्ती विशेषण उनके श्रेष्ठकवित्वके ही परिचायक है ।
धर्माचार्यत्व यद्यपि अभी तक सोमदेवसूरिका कोई स्वतंत्र धार्मिक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, परन्तु यशस्तिलकके अन्तिम दो आश्वास, जिनमें उपासकाध्ययन या श्रावकोंके आचारका निरूपण किया गया है, इस बातके साक्षी हैं कि वे धर्मके बड़े भारी मर्मज्ञ थे । स्वामी समन्तभद्र के रत्नकरण्डके बाद श्रावकों का आचारशास्त्र ऐसी उत्तमता, स्वाधीनता और मार्मिकता के साथ इतने विस्तृतरूपमें आजतक किसी भी विद्वान्की कलम से नहीं लिखा गया । जो लोग यह समझते हैं कि धर्मग्रन्थ तो परम्परासे चले आये हुए ग्रन्थोंके अनुवादमात्र होते है, उनमें ग्रन्थकर्ता विशेष क्या कहेगा, उन्हें यह उपासकाध्ययन अवश्य पढ़ना चाहिए और देखना चाहिए कि धर्मशास्त्रों में भी मौलिकता और प्रतिभा के लिए कितना विस्तृत क्षेत्र है । नीतिवाक्यामृत की प्रशस्ति में लिखा है:
---
सकलसमयतर्के नाकलंकोऽसि वादिन्
न भवसि समयोक्तौ हंससिद्धान्तदेवः । न च वचनविलासे पूज्यपादोऽसि तत्त्वं वदसि कथमिदानीं सोमदेवेन सार्धम् ॥
अर्थात् हे वादी, न तो तू समस्त दर्शन - शास्त्रोंपर तर्क करने के लिए अकलंकदेवके तुल्य है; न जैनसिद्धान्तको कहनेके लिए हंस सिद्धान्तदेव है और न व्याक